SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 141
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उप चिं|| ते कलहायंते प्रीत्या निर्वहतीत्यर्थः. यदागमः-जइ इक्कभाण जिमिया। गिहिणोवि यदीह तामा. मित्तिया हुंति ॥ जिणवयणबहिप्नुया । धम्म पुग्मं अयाणंता ॥ १ ॥ किं पुण जगजीवसु हा-वहेण संजुजिऊण समणेणं ॥ सक्काह श्क्कुमिको । बीउ विवररिक देहो ॥ २ ॥ तथा नित्यं संविग्नमनसो मोदाभिलाषिणो विरक्तत्वात् यो यस्य श्रुतस्य पठनपरावर्तनादियोग्यः कालः. यथा कालिकस्योत्तराध्ययनादेरखाध्यायिकर्ज दिवसनिशाप्रथमचरमपौरुष्यौ, उत्कालिकस्य तु दशकालिकादेः "संजमघा १ पाए । सादिवे ३ वग्गुहे य ४ सारीरे ५” इति पंचविधास्वाध्यायिकर्ज कालवेलावर्ज च सर्वमप्यहोरात्रं पठितुं कालः, तठ्यतिरिक्तस्त्वतालः, तस्मिन्नकाले खाध्यायं वर्जयंति. ॥ १४ ॥ तथा ॥ मूलम् ॥-वजति निच्चवासं । सिजायरराय नियय पिंडे उ ॥ उसग्गाववाय विक। अणले दिकंतिन कयावि ॥ १५॥ व्याख्या--एकत्रे नित्यवासं वर्जयंति, उक्तं च-पमिबं धो लहुअत्तं । न जणुवयारो न देस विन्नाण ॥ नाणाईण अवुढी । दोसा अविहारपरकंमि ॥१॥ जो गाउयं समत्थो । सूरादारण निकवेलं जा ॥ विहरत एसो सपर-कमो य नो | For Private and Personal Use Only
SR No.020847
Book TitleUpdesh Chintamani Satik Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayshekharsuri
PublisherShravak Hiralal Hansraj
Publication Year1922
Total Pages230
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy