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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८६५ उप चि-|| बुजुदाक्षामकुक्षिः कश्चिद् अमकः साधूनां निदाप्राचुर्यमालोक्य प्रवबाज. स चैकदिवसं पा. । ताभा.४॥ लितवतो निशि सूचिकया विपद्य सद्यस्तत्प्रजावादवंत्यां संप्रति म नरपतिबभूव. श्ह केऽपि स्वजनस्नेहयहिखहृदया एवं विधामपि प्रवज्यांप्रत्यवसायंते तान्प्रत्याह-- ॥ मूलम् ॥-तेसिं सयणाण कए । चइए को वन्चलं चरणसद्धिं ॥ जाण सिणेहो असु. हो । अबहुछिइ विहमणासीलो ॥ १६ ॥ व्याख्या-तेषां स्वजनानां कृते कः कृती वत्सलां सकलसुखदायित्वेन तात्विकस्नेहवती चरणलक्ष्मी चारित्रश्रियं त्यजति ? तेषां केवामित्याह-येषां स्नेहोऽशुनो पुतिबंधनत्वात्. यदाहुः-अमित्तो मित्तवेसेण । कंठे चित्तूण रोयइ ॥ मा मित्ता सोहगं जाहि । दोवि गलामो दोगई ॥१॥ तथा अबहुस्थितिरल्पकालजाव्येकजविकत्वात्. उक्तं च-जहा संकाए रुस्कंमि । मिस्रति विहगा बहू ॥ पंथिया पहिश्रावासे। जहा देसांतरागया ॥१॥ पहासे जंति सबेवि । अन्नमन्नदिसंतरं ॥ एवं कुमुत्रवासेवि । सं. गया बहवो जिया ॥ २ ॥ कस्सवि कोइ न श्छो । श्कंचिय श् अप्पणो कऊ ॥ कजाव. || मिया संसा-रियाण सवेवि संबंधा ॥ १७ ॥ व्याख्या-उत्तानार्थाः. यत्रांतरे कश्चिदाह-न For Private and Personal Use Only
SR No.020847
Book TitleUpdesh Chintamani Satik Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayshekharsuri
PublisherShravak Hiralal Hansraj
Publication Year1922
Total Pages230
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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