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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1012 तुलसी शब्द-कोस ईश्वर और शुद्ध विद्या । इनमें सदाशिव ज्ञान शक्ति प्रधान है और प्रायः 'शिव' अर्थ में चलता है। बिनती सुनहु सदासिव मोरी।' मा० २.४४.७ सदासीन : (सदा+आसीन)। सर्वदा विराजमान, सदा विद्यमान । सदा बैठे हुए । 'वद्रिकाश्रम सदासीन पद्मासनं ।' विन० ६०.५ सदश : वि. (सं.)। समान । विन० ५१.२ सदेह : वि० (सं.)। सशरीर, भौतिक आकार युक्त, मूर्त । विन० २१४.५ सदैव : (सदा+एव) । सदा ही; सभी समयों में । मा० १.२६६.५ सदोष : वि० (सं०) । दोषयुक्त, दूषित, विकारयुक्त । मा० २.१८३ सधर्म : सं०० (सं.)। (१) कल्याणगुण (सदगुन)। मा० ४ श्लोक १ (२) उत्तम धर्माचार । 'जिमि कपूत के उपजे कुल सद्धर्म नसाहिं।' मा० ४.१५ सम : सं०० (सं० सद्मन्) । सदन; घर । विन० ५१.६ सद्य : (१) क्रि०वि० (सं० सद्यस्) । शीघ्र ही, तत्काल । 'करउँ सद्य तेहि साधु समाना।' मा० ५.४८.३ (२) वि० (सं० सद्यस्क) । प्रत्यग्र, ताजा । 'करि सब सोनित पान ।' मा० ६.१०१.२ सक्ति : सं०स्त्री० (सं०) । श्रेष्ठ उपाय, कौशल (दे० जुगुति) । विन० ५७.७ सधन : वि० (सं.)। धन-सहित । दो० २०७ सषरम : (सं० सधर्म) । धर्मयुक्त । दो० ५३० सन : (१) अव्यय (परसर्ग) । से । 'नृप सन अस बरु दूसर लेहू ।' मा० २.५०.४ (२) ओर । 'बहुरि बिलोकि बिदेह सन ।' मा० १.२६६ (३) सं०० (सं.. शण) । पटसन (सनई या जूट के समान एक सुप जिसकी त्वचा से रस्सी बनती है)। 'सन इव खल पर बंधन करई ।' मा० ७.१२२.१७ सनक : (दे० सनकादि) । विन० ५०.६ सनकादि : (सं.)। ब्रह्मा के चार मानस पुत्र=सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार । मा० ७.३५ सनकादिक : सनकादि । मा० ७.३१.३ सनकादी : सनकादि । मा० ३.६.५ सनकार : सं०स्त्री० । इङ्गित, कायिक संकेत (अङ्ग लिनिर्देश आदि) । 'समय सुकरुना सराहि सनकार दी।' कवि० ७.८३ सनकारे : भूक००ब० । संकेतों से बुलाये । 'सनकारे सेवक सकल।' मा० २.१९६ सनमान : सं०० (सं० सन्मान =सम्मान) । सत्कार, आदर । 'सब कर करि सनमान बहूता।' मा० ४.१६.६ सनमानत : वकृ.पु । सत्कार करता-करते । गी० १.४२.३ For Private and Personal Use Only
SR No.020840
Book TitleTulsi Shabda Kosh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBacchulal Avasthi
PublisherBooks and Books
Publication Year1991
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size13 MB
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