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तुलसा शब्द-कोश
निष्ठा को-सेव्य-सेवक भाव को-वास्तव भक्ति मानते हैं। नवधा भक्ति (मा० ३.१६) साधन भक्ति है। इस भक्ति-मार्ग को वे वेद-सम्मत मानते हैं
और विषय-वैराग्य तथा विवेक (ज्ञान) को उसका अङ्ग मान्य करते हैं। 'श्रुति सम्मत हरिभक्ति पथ संजुत बिरति बिबेक ।' मा० ७.१०० ख भक्तिप्रिय : वि० । भक्ति ही जिसे प्रिय हो। विन० ४६.८ भक्तिभाव : उपास्य के प्रति अनन्य-निष्ठा की आनन्दपूर्ण अखण्ड वासना जिसमें
भक्त का चित्त आराध्य मय हो जाता है । भक्ति की अखण्ड चित्तवृत्ति । विन०
३६.३ मक्तिरत : भक्ति के आनन्द में लीन । विन० ५७.१ भक्या : (सं० पद) भक्ति से, भक्तिपूर्वक । मा० ७.१०८ श्लोक ९ मक्षक : वि० (सं.)। खाने वाला, संहार कर्ता। विन० ५३.६ भखा : भूकृ०० (सं० भक्षित>प्रा० भविखम)। खाया । जेहिं जिउ न भखा
को।' विन० १५२.७ भगत : भक्त । (१) सेवक । 'मन क्रम बचन भगत मैं तोरा ।' मा० १.१६०.३
(२) दास्यभक्त । मा० ७.८७.१-८ भगतन, नि : भगत +संब० भक्तों (के) । 'सो केवल भगतन हित लागी।' मा०
भगति : (१) भक्ति । मा० १.६.७ (२) निष्ठा, श्रद्धा (पितृभक्ति) आदि।
. 'दसरथ तें दसगुन भगति सहित तासु करि काजु ।' दो० २२७ भगतिजोग : (सं० भक्तियोग) भक्ति की तन्मयता, अनन्य भक्ति साधना, आराध्य
में ही चित्तवृत्ति की एकतानता; निरुद्ध चित्त की भक्ति में एकाकारता ।
विन २२४.४ भगतिमय : (सं० भक्तिमय) भक्ति से ओतप्रोत, भक्तियोग से सर्वाङ्ग व्याप्त । __ 'राम भगतिमय भरतु निहारे ।' मा० २.२६४.७ भगतिवंत : वि० (सं० भक्तिमत्>प्रा० भत्तिभंत)। भक्ति युक्त । माल
७.८६.१० भगतु : भगत+कए० । अनन्य भक्त, अद्वितीय भक्त । 'रघुपति भगतु जासु सुतु
होई ।' मा० २.७५.१ भगवंत, ता : सं०+वि०० (सं० भगवत् >प्रा० भयवंत) । सर्वेश्वर, सम्पूर्ण
विश्व के ऐश्वर्य का स्वामी, प्रभु, विश्व की प्रभुता वाला । मा० १.४४ भगवंतु : भगवंत+कए । एकमात्र परमेश्वर । 'कंत भगवंत ते तउ न चीन्हे ।'
कवि० ६.१६ भगवान, ना : भगवंत । परमेश्वर । मा० १.८१
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