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________________ तत्त्वार्थसूने यश्चतुःसमयपरा-अविग्रहा-एकसमया विग्रहा एकसमया-द्विसमया-त्रिसमया चावगन्तव्याः । तत्परो न संभवन्तीति भावः, तथास्वभावात् प्रतिघाताभावात् विग्रहनिमित्ताभावाच्च । विग्रहो वक्रिमम् विग्रहोऽवग्रहः श्रेण्यन्तरसंक्रान्तिरिति समानार्थकम बोध्यम् । अत्रेदं बोध्यम्-समश्रेणिव्यवस्थितमुपपातक्षेत्रं यस्योत्पित्सो जीवस्य भवति स जीवः ऋज्वायता श्रेणिमनुत्पत्योत्पद्यते । तत्रएकेन समयेन वक्रमकुर्वाण उत्पद्यते, यदा च कदाचित् तदेवोपपातक्षेनं विश्रेणिस्थं भवति तदाएकसमया-द्विसमया-त्रिसमयाचेति तिस्रो गतयो निष्पद्यन्ते । ___ तथाचोक्तम्-आगमे-'अपज्जत्तमुहमपुढविक्काइए णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढ़वीए पुरथिमिल्ले चरमंते समोहए समोहणित्ता जे भविए इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए पच्चथिमिल्ले चरमंते अपज्जत्तसुहुमपुढविक्काइयत्ताए उववज्जित्तए से णं भंते ! कइसमइए णं विग्गहेणं उववज्जेज्जा ? गोयमा एगसमइएण वा दुसमइएण वा तिसमइएण वा विग्गहेण उववज्जेज्जा' संक्रमण के समय या अपनी ही जाति में संक्रमण करते समय संसारी जीव की विग्रह वाली वक्र और बिना विग्रह की अवक्रगति होती है। ___इस प्रकार कभी वक्र और कभी अवक्र (सीधी) जो गति होती है, उसका कारण उपपात क्षेत्र की विशेषता ही है । जिस क्षेत्र में जाकर जीव को जन्म लेना है, वह यदि अनुकूल होता है तो तिर्छ, ऊपर या नीचे, दिशा या विदिशा में मर कर जितनी आकाशश्रेणी में अवगाढ़ होता है, उसी प्रमाण वाली श्रेणी का परित्याग न करता हुआ, चार विग्रहों से पहले-पहले एक, दो या तीन विग्रह करके उत्पन्न हो जाता है । किन्तु ऐसा नियम नहीं समझना चाहिए कि अन्तर्गति निश्चित रूप से विग्रह वाली ही होती है । किन्तु जिन जीवों की गति विग्रह वाली होती है, उनकी वह विग्रहवाली गति उपपात क्षेत्र के अनुसार अधिक से अधिक तीन विग्रह वाली होती है । इस प्रकार समय की अपेक्षा से चार प्रकार की गतियाँ होती हैं-एक समय की अविग्रहागति, एक विग्रहवाली, दो विग्रह वाली और तीन विग्रहवाली इससे अधिक विग्रहवाली गति का संभव नहीं है, क्योंकि जीव का ऐसा ही स्वभाव है, प्रतिघात का अभाव होता है और अधिक विग्रह करने का कोई कारण नहीं है। विग्रह का अर्थ है वक्रता, अवग्रह अथवा एक आकाशश्रेणी से दूसरी श्रेणी में जाना। ये सब समानार्थक शब्द हैं । अभिप्राय यह है कि भवान्तर में उत्पन्न होने वाले जीव का उपपातक्षेत्र यदि समश्रेणी में रहा हुआ हो तो वह उसी श्रेणी के अनुसार बिना कहीं मुड़े-सीधा जा कर एक ही समय में उत्पन्न हो जाता है, किन्तु जब उपपातक्षेत्र विश्रेणी में अर्थात् किसी दूसरी श्रेणी में होता है, तब वहाँ तक पहुँचने के लिए वह एक, दो या तीन बार मुड़ता है। जब उसे मुड़ना पड़ता है तब मोड़ के अनुसार अधिक समय लगते हैं । आगम में कहा है
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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