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________________ तत्वार्थ सूत्रे सायां पुद्गलानां नियमाभावेन : परप्रयोगानपेक्षया ऋज्वीगतिः, परप्रयोगानपेक्षया तु उभयथापि गतिर्भवति । ૮૮ सिद्धिं प्राप्नुवतां जीवानामेकान्तेनाऽविग्रहेव । ऋज्वीगतिर्भवति तदन्यजीवानां पुनः संसारिणां विग्रहा [वक्रा] अविग्रहा [ ऋज्वी] वागतिर्भवतीति प्ररूपयितुमाह-- "जीवगई यदुविहा विग्गहा - अविग्गहाय" इति । जीवगतिश्च भवान्तरप्रापिणी रूपा द्विविधा भवति तद्यथा-विग्रहावक्रा, अविग्रहा - अवकाऋज्वी च । तत्रैकसमयाऽविग्रहागतिर्भवति सा चाऽविग्रहागतिर्मोक्षगामिनः सिद्धजीवस्य भवति । अविग्रहागतिश्च एकसमया द्विसमया, त्रिसमया च भवति । तत्र जघन्येन एकसमया, उत्कृष्टेन त्रिसमया विग्रहा गतिरवगन्तव्या । एवञ्चैकेन्द्रियद्वीन्द्रियादिजात्यन्तः संक्रमणे, स्वजातिसंक्रमणे वा संसारिणो जीवस्य विग्रहा वक्रा, अविग्रहा - अवक्रा ऋज्वी च गतिर्भवति । - कदाचिद् वक्रगतित्वे कदाचिदवक गतित्वेकारणन्तु उपपातक्षेत्रस्याऽनुकूलत्वं-प्रतिकूलत्वंचाऽवगन्तव्यम् । तथाहि यस्मिन् क्षेत्रे जीवो जन्मप्राप्स्यति तस्य क्षेत्रस्याऽनुकूल्यात् तिर्यगूर्ध्वमघश्च दिक्षु - विदिक्षु च व्यावहारिकीषु म्रियमाणो यावत्यामाकाशश्रेण्यामवगाढो भवति । तत्वार्थदीपिका - - पहले जीवों और पुद्गलों की गति की प्ररूपणा की गई है । उसमें जीवों की वह गति भवान्तर प्रापिणी और पुद्गलों की गति देशान्तर प्रापिणी होती है, ऐसा समझना चाहिए | क्या जीव या पुद्गल सीधा ही जाकर रुक जाता है अथवा वक्र -- टेढ़ा जाकर भी उत्पन्न होता है अथवा ठहर जाता है : इस प्रकार की जिज्ञासा का समाधान यह है कि पुद्गलों के लिए नियम न होने से पर प्रयोग के अभाव में उनकी सोधी ही गति होती है; किन्तु परप्रयोग के निमित्त से दोनों प्रकार की गति होती है । सिद्धि प्राप्त करने वाले जीवों की गति नियम से बिना विग्रह ( मोड़) के ऋजु हो होती है । उनके अतिरिक्त संसारी जीवों की गति विग्रह वाली ( वक्र) भी होती है और बिना विग्रह 1 की (सीधी) भी होती है । इस प्रकार की प्ररूपणा करने के लिए कहते हैं जीवों की गति दो प्रकार की होती है - सविग्रहा गति और अविग्रहा गति । एक भव से दूसरे भव को प्राप्त कराने वाली जीव की गति दो प्रकार की होती है - विग्रह वाली अर्थात् वक्र गति और अविग्रहवाली अर्थात् सरल गति । विग्रह रहित - ऋजु गति एक समय की ही होती है । मोल गामी सिद्ध जीव की अविग्रह गति होती है । अविग्र गति एक समय, दो समय और तीन समय की होधी है । जघन्य एक समय की और उत्कृष्ट तीन समय की जाननी चाहिए, इस प्रकार एकेन्द्रि, द्वीन्द्रिय आदि जातियों के अन्दर संक्रमण करने में अथवा स्वजाति में संक्रमण करने में संसारी जीव की गति सविग्रह अर्थात् वक्र और अविग्रह अर्थात् सरल-सीधी होती ।
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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