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________________ तत्त्वार्थसूत्रे ता एवं विभिद्यनकदाचिदपि प्रयान्तीति भावः । एवञ्च-जीवपुद्गलावगाहलक्षणस्याऽऽकाशस्य परमाणुरूपा मूर्तप्रदेशानां प्रदर्धाश्रेणिरसंख्यातप्रदेशा भवति जीवानां गमने, पुद्गलानां गमने तु-संख्यातप्रदेशापि श्रेणिर्भवति । तामेवं विधां श्रेणिमनुपत्यगमनं सम्पद्यते, आकाशप्रदेशानां याश्रेणिस्तामनुश्रित्य उपपद्यते गतिजीवानां-पुद्गलानां चेति । तथाचाऽऽकाशश्रेण्यभेदवर्तिनी देशान्तरप्राप्तिलक्षणागतिः स्वयमेव समासादितगतिपरिणामाज्जन्तोर्गतिहेतुसकललोकव्यापिधर्म-द्रव्यापेक्षया प्रादुर्भबति । भवान्तरसंक्रमणाभिमुखोजीवः कर्मणो मन्दक्रियावत्वात् येषामेवा काशप्रदेशानामवष्टम्भं कृत्वा शरीरत्यागं करोति तानेवाऽभिनन्दन देशान्तरमूर्ध्वमदस्तिर्यग्वा गच्छति, । धर्मास्तिकायाभावाच्च परतो लोकपर्यन्ते एवं व्यवतिष्ठते, लोकनिष्कुटोपपातक्षेत्रवशाच्च भवान्तरप्राप्तो नूनमेव जीवधर्माद्वक्रां गतिं प्रतिपद्यते । पुद्गलानामपि-परप्रयोगनिरपेक्षाणां स्वाभाविकीगतिरनुश्रेणिरूपा भवति यथा परमाणोः प्राच्याद् लोकान्तात् प्रतीच्यलोकान्तमेकेन समयेन प्राप्तिर्भवति वस्तुगतिमनुरुध्य सूत्रेण प्रतिपादितम् । उक्तंच-व्याख्याप्रज्ञप्तौ २५--शतके ३-उद्देशके–“परमाणुपोग्गलाणं भंते ! किं अणुसेढीगई पवत्तइ-विसेढीगई पवत्तइ-१ गोयमा ! अणुसेढीगई पवत्तइ नोविसेढीगइ पवत्तइ । दुपएसियाणं भंते ! खंधाणं अणुसेढीगई पवतइ, विसेढीगई पवत्तइ एवं चेव, एवं जाव अणंतपएसियाणं खंधाणं नेरइयाणं भंते ! किं अणुसेढीगई पवत्तइ-विसेढीगईपवत्तइ एवं चेव एवंजाववेमाणियाणं"। __ जिनमें पूरण और गलत अर्थात् मिलना और बिछुड़ना पाया जाय उन्हें पुद्गछ कहते हैं। उन पुद्गलों की तथा संसारि जीवों की ऊँची नीची अथवा तिर्की जो गति होती है, वह आकाश के प्रदेशों की श्रेणी के अनुसार होती है । पुद्गलो की स्वभाव लम्बी होती हैं । इसी प्रकार ऊपर-नीचे भी धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय पर्यन्त जो श्रेणियाँ हैं, उन श्रेणियो में ही गति होती है । उनको लांघ करभेदन करके कदापि गमन नहीं करते ।। . इस प्रकार जीवों और पुदगलों के अवगाह रूप आकाश के परमाणुरूप अमूर्त प्रदेशों की लम्बी श्रेणी असंख्यात प्रदेशों की होती है, किन्तु वह जीवों के गमन में ही होती है । पुद्गलों के गमन में तो संख्यात प्रदेना वाली श्रेणी भी होती है । इस प्रकार की श्रेणी में ही गमन होता है । आकाश के प्रदेशों की जो श्रेणी है, उसके अनुसार ही जीवों और पुद्गलों की गति हो सकती है। . स्वतः गति परिणाम को प्राप्त जीव की देशान्तर प्राप्ति रूप गति आकाश श्रेणी को उल्लंघन न करके, गति के कारणभूत एवं समस्त लोक में व्याप्त धर्मद्रव्य के निमित्त से होती है। परभव में जाने के लिए अभिमुख हुआ जीव मनक्रिया वाला होने से जिन आकाशप्रदेशों
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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