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________________ तत्वार्थ सूत्रे तत्त्वार्थनिर्युक्तिः - पूर्वसूत्रे - भावेन्द्रियद्रव्यभेदेन - इन्द्रिय द्वैविध्यं प्रतिपादितम् सम्प्रतितयोर्मध्ये—भावेन्द्रियस्य द्वैविध्यप्रतिपादन द्वारा स्त्ररूपं निरूपयति-- “भाविदियं दुविहं लद्धीउवओगोय-" इति पुर्वोक्तमात्मपरिणतिविशेषरूपं भावेन्द्रियं द्विविधं प्रज्ञप्तम् तद्यथा- - लब्धि:उपयोगश्चेति । ७० तत्र -- लब्धिस्तावत् स्वस्वमिन्द्रियाssवरणकर्मक्षयोपशमजनितम् गतिजात्यादिनामकर्मजनितम् मतिज्ञानदर्शनावरणकर्मक्षयोपशमजनितम् ज्ञानावरणक्षयोपशमजनितम् दर्शनावरणक्षयोपशमजनितम् भवति तद्धेतुकः आत्मनः परिणाम उच्यते स चोपयोगः पञ्चविधः । श्रोत्रोपयोगादिभेदात् तत्रोपयोगस्येन्द्रियत्वेऽपि कार्ये कारणोपचारात् तस्मिन्निन्द्रियत्वव्यपदेशः । लब्धिश्चपञ्चविधा, स्पर्शनेन्द्रियादिलब्धिभेदात् । तत्र - शीतोष्णादिस्पर्शपरिज्ञानसामर्थ्यरूपा - उपयोगात्मनाऽनभिव्यक्ता स्पर्शनेंन्द्रियलब्धि एवं रसनेन्द्रियादिलन्दयोऽपि बोध्या: । सामर्थ्यमिन्द्रियाश्रयकर्मोदयनिर्वृत्त वा जीवस्य भवति अन्तरायकर्मक्षयोपशमापेक्षया इन्द्रियविषयोपभोगज्ञानशक्तिर्वा लब्धिरुच्यते । सा च लब्धिः पञ्चविधा स्पर्शनेन्द्रियलब्धिः - १ रसनेन्द्रियलब्धिः २ घ्राणेन्द्रियलब्धि - ३ चक्षुरिन्द्रियलब्धि ४ श्रोत्रेन्द्रियलब्धिश्च । तत्र - शीतोष्णादिस्पर्शपरिज्ञानसामर्थ्यरूपा उपयोगात्मनाऽनभिव्यक्ता स्पर्शनेन्द्रिलब्धिरवग तत्वार्थ नियुक्ति —– इससे पूर्व के सूत्र में भावेन्द्रिय और द्रव्येन्द्रिय के भेद से इन्द्रियों के दो-दो भेदों का कथन किया गया है। अब उनमें से भावेन्द्रिय के दो भेद बतलाकर उसका स्वरूप कहते हैं । भावेन्द्रिय दो प्रकार की है—लब्धि और उपयोग । 1 अपने-अपने इन्द्रियावरण कर्म के क्षयोपशम से जनित, गति जाति आदि नामकर्म के - द्वारा जनित, मतिज्ञानावरण तथा दर्शनावरण कर्म के क्षयोपशम से जनित आत्मा की शक्ति है । उपयोग श्रोत्रोपयोग आदि के भेद से पाँच प्रकार का है । यद्यपि उपयोग इन्द्रिय का कार्य है, फिर भी यहाँ कार्य में कारण का उपचार कर उसे इन्द्रिय कहा है। इसी प्रकार लब्धि भी स्पर्शनेन्द्रियलब्धि आदि के भेद से पाँच प्रकार की हैं। ठंडे करने की शक्ति जो उपयोग रूप में प्रकट न हुई हो, वह स्पर्शनेद्रिय प्रकार रसनेन्द्रिय लब्धि आदि भी समझ लेनी चाहिए । या गर्म स्पर्श को ग्रहण लब्धि कहलाती है । इसी अथवा इन्द्रियाश्रय कर्म के उदय से जीव में सामर्थ्य उत्पन्न होता है । अन्तरायकर्म के क्षयोपशम की अपेक्षा से इन्द्रियों के विषयों के उपभोग या ज्ञान की जो शक्ति होती है वह लब्धि कहलाती है । वह लब्धि पाँच प्रकार की है - ( १ ) स्पर्शनेन्द्रिय लब्धि (२) रसनेन्द्रिय लब्धि (३) घ्राणेन्द्रिय लब्धि (४) चक्षुरिन्द्रिय लब्धि ( ५ ) श्रोत्रेन्द्रिय लब्धि । शीत उष्ण आदि स्पर्शों के परिज्ञान का सामर्थ्य जो उपयोग रूप से व्यक्त न हुआ हो
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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