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________________ दीपिकानियुक्तिश्च अ०१ जीवस्य षड्भावनिरूपणम् ६५ श्वर्ययोगात् इन्द्रो जीवः 'इंदिपरमैश्वर्ये' इत्यनुशासनात् इन्द्रियेण-जीवेनाऽधिष्ठिंतमिन्द्रिय पञ्चप्रकारकं प्रज्ञप्तम् । स्पर्शन-रसन-प्राण-चक्षुःश्रोत्रभेदात् । तत्र ---स्पर्शरसगन्धरूपशब्दग्रहणार्थ क्रमशः-स्पर्शनरसनादीनि पञ्चेन्द्रियाणि प्राधान्येन-- स्वातन्त्र्येण च समभिपतन्ति । मनस्तु --चक्षुरादीन्द्रियजातनिर्धारितं रूपाद्यर्थकलापमनुपतति । न तु-साक्षान्निर्धारयति । चक्षुरादीन्द्रियाणां निमीलनाद्यवस्थायां मनसारूपादिविषयग्रहणाऽभावात् तस्मात्-चक्षुरादिवन्नेन्द्रियं मनः किन्तु अतीन्द्रियं तदुच्यते । नवा-वाक्पाणि पादपायूपस्थानि वा-इन्द्रियाणि व्यपदेष्टुमर्हाणि सन्ति तेषां वचनादिव्यापारपरायणत्वेऽपि चक्षुरादिद्वारजन्यविज्ञानस्य रूपाद्यर्थग्रहणाय परिणतिवत् वागादिद्वारजन्यवच अथवा पहले पृथ्वीकाय आदि एकेन्द्रिय द्वीन्द्रिय आदि जीवों की प्ररूपणा की गई है । अतएव ऐसी जिज्ञासा होना स्वाभाविक है कि इन्द्रियाँ कितनी होती हैं ? कितने प्रकार की हैं? किस उपयोग वाले जीव को कौन-सी इन्द्रिय होती है ? यहाँ इन्हीं सब प्रश्नों का उत्तर दिया जा रहा है। __अथवा संसारी जीवों का ज्ञान इन्द्रियों के द्वारा ही होता है किन्तु सभी इन्द्रियाँ सब जीवों को प्राप्त नहीं होती। अतएव इन्द्रियों का भेद बतलाते हुए उनकी संख्या का नियमन करने के लिए कहते हैं । अथवा पहले बतलाया गया है कि उपयोग जीवों का अन्वयी लक्षण है, अतः अब उस उपयोग के जो निमित्त हैं, उन्हें दिखलाने के लिए कहा है-इन्द्रियाँ पाँच प्रकार की हैं। समस्त द्रव्यों में ऐश्वर्य का भाजन होने के कारण जीव इन्द्र कहलाता है । अथवा इन्दन करने-परमैश्वर्य का उपयोग करने के कारण भी जीव इन्द्र कहलाता है । रूप, रस, गंध और स्पर्श आदि विषयों में परमैश्वर्यवान् होने से भी जीव इन्द्र कहा जाता है । व्याकरण के अनुसार 'इदि' धातु परमैश्वर्यभोग के अर्थ में है। इस कारण इन्द्रिय का अर्थ हुआ-इन्द्र-जीव के द्वारा अधिष्ठित । इन्द्रियों के पाँच भेद हैं-१. स्पर्शन २. रसना २. घाण ४. चक्षु और ५- श्रोत्र | स्पर्शन इन्द्रिय स्पर्श को, रसना रस को, घ्राण गंध को, चक्षु रूप को और श्रोत्रंद्रिय शब्द को प्रधान रूपसे ग्रहण करती हैं। मन, चक्षु आदि इन्द्रियों द्वारा निर्धारित रूप आदि पदार्थों को ग्रहण करता है । वह साक्षात् अर्थात् इन्द्रियनिरपेक्ष होकर पदार्थों को ग्रहण नहीं कर सकता, क्योंकि यदि आँख आदि बंद हो तो रूप आदि विषय का मन से ग्रहण नहीं होता । इस कारण मन, चक्षु, आदि की भाँति इन्द्रिय नहीं किन्तु अतीन्द्रिय कहलाता है। वाक्, पाणि (हाथ), पाद (पाँव), पायु (गुदा) और उपस्थ (मूत्रेन्द्रिय) इन्द्रियाँ नहीं कही जा सकतीं; क्योंकि जैसे चक्षु आदि द्वारा जनित ज्ञान रूप आदि पदार्थो के ग्रहण में परिणत
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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