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________________ दीपिकानियुक्तिश्च अ. त्रसजीवनिरूपणम् ६१ फलितम् तस्य विभागपूर्वकं प्रकारान्तरेण वैशिष्टयं प्रतिपादयितुमाह- "उवओगो दुविहो सागारो अणागारो य" इति पूर्वोक्तस्वरूप उपयोगो द्विविधः प्रज्ञप्तः, साकारः अनाकारश्च तथाहि-साकारं ज्ञानं निराकारं दर्शनं भवति सहआकारेण जातिवस्तुप्रतिनियतग्रहणपरिणामरूपेण विशेषणवर्तते इति साकारम् ज्ञानं तथा चोक्तम्-'आगारो उविसेसा" इति, अविद्यमानआकारो भेदो विशेषो वस्तुतो ग्राह्यस्यास्येति अनाकारम् विशेषरहितं सामान्यावलम्बिदर्शनम् । उक्तञ्च "साकारे सेणाणे अणागारे दंसणे" इति, 'मइसुयवहिमणकेवलविभंगमइ सुयणाण सागारा” इति तथा च चत्वारिचक्षुश्चक्षुरवधिकेवलदर्शनरूपाणि दर्शनानि अनाकाराणि साकाराणि, पञ्च ज्ञानानि त्रीणि अशनानि च साकाराणि, तथाहि दूरादेव शालतमालबकुलाशोकचम्पककदम्बजम्बूनिम्बादिविशिष्टव्यक्तिरूपतयाऽवधारितं तरुनिकरमवलोयतः सामान्येन. वृक्षमात्रप्रतीतिजनकं यदपरिस्फुटं किमपि रूपं चकास्ति तत्सामान्यरूपमनाकारं दर्शनमुच्यते निर्विशेषं विशेषाणामग्रहोदर्शनमुच्यते” इति वचनप्रामाण्यात् यत्पुनस्तस्यैव । यत्पुनस्तस्यैव । निकटीभूतस्य तालतमालशालादि व्यक्तिरूपतयाऽवधारितं तमेव महीरूहमुत्पश्यतो विशिष्टव्यक्तिप्रतीतिजनक परिस्फुट रूपमाभाति तद् विशेषरूपं साकारं ज्ञानं भवतीति भावः । तत्र ज्ञानोपयोगः साकारो व्यपदिश्यते दर्शनोपयोगश्च अनाकार उच्यते ज्ञानस्य इन्द्रियप्रणालया विषयाकारेण परिणतत्वात् साकारत्वव्यवहारो भवति, दर्शनस्य तु तदाकारेण परिणतत्वाभावादनायोग है, दर्शन निराकार उपयोग है। जो उपयोग प्रतिनियत होता है अर्थात् जातिं वस्तु आदि विशेष को ग्रहण करता है वह साकारउपयोग ज्ञान कहलाता है कहा भी है-- -आकार विशेष को कहते हैं । जिस उपयोग में वस्तु के विशेष अंश का ग्रहण नहीं होता. वह अनाकार उपयोग है। तात्पर्य यह है कि दर्शन विशेष रहित सामान्य मात्र का ही ग्राहक होता है । कहा भी है---ज्ञान साकार और दर्शन निराकार होता है। मति, श्रुत' अवघि' मनःपर्याय, केवलज्ञान और विभंगज्ञान, कुमतिज्ञान तथा कुश्रुतज्ञान साकार होते है। चार प्रकार के दर्शन अनाकार हैं। किसी ने दूर से वृक्षों का समूह देखा किन्तु उसे साल, तमाल, बकुल, अशोक चम्पक, कदम्ब, जामुन नीम आदि विशेष का ज्ञान नहीं हुआ~सामान्य रूप से वृक्ष मात्र की ही प्रतीति हुई, कुछ है' ऐसी अपरिस्फुट प्रतीति हुई तो तो वह दर्शन है, क्योंकि जिस उपयोग में विशेषों का ग्रह्ण नहीं होता, वही दर्शनोपयोग कहलाता है। जब वही व्यक्ति निकट पहुँचता है और ताल, तमाल. साल आदि विशेष रूप में निश्चय करता है, तब वह परिस्फुट प्रतिभास ज्ञान कहलाता है। तात्पर्य यह है कि विशेष धर्मों को ग्रहण करने वाला उपयोग ज्ञानोपयोग है ।
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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