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________________ ६६० तत्वार्थसूत्रे दुष्षमा- दुष्षम सुषमा- दुष्षमा- दुष्षमदुष्षमा रूपकालविशेषयुक्ताभ्याम् - उत्सर्पिण्यवसर्पिणीभ्याम् मनुष्याणाम् उपभोगायुः शरीरोत्सेधप्रमाणादिकृतौ वृद्धि - हासौ भवतः । तदितरेषु — भरतैरवताऽतिरिक्तेषु पुन: हैमवत हरिवर्ष - महाविदेह - रम्यक- -हैरण्यवत क्षेत्रेषु मनुष्याः यथावस्थिता एव भवन्ति । नहि हि हैमवतादिपञ्चक्षेत्रेषु मनुष्याणाम् - उपभोगायुः शरीरोत्सेधप्रमाणादिकृतौ वृद्धि - हासौ भवतः । अपितु -- तेषु क्षेत्रेषु - उत्सर्पिण्यवसर्पिण्योरसद्भावेन कालस्य यथावस्थितत्वेनोपभोगायुः शरीरोत्सेधप्रमाणादिषु साम्यमेव भवति मनुष्याणाम्, न तु वैषम्यमितिभावः ॥ २९ ॥ 'तत्रार्थनिर्युक्तिः - पूर्व तावद् जम्बूद्वीपान्तर्वर्तिनां भरतादिसप्तक्षेत्राणां प्ररूपणं कृतम्, सम्प्रति - तेषु क्षेत्रेषु मनुष्याणां किं समानता एवा ऽनुभव लक्षणोपयोगजी - वितायुः शरीरोत्सेध प्रमाणादयो भवन्ति ? आहोस्वित् - कश्चित्प्रतिविशेषो भवतीत्याशङ्कां समाधातुमाह - "भरहेवसुं छस्समयाहिं उस्सप्पिणि ओसप्पिणीहिं- मणुयाणं बुड्ढी-हासा, तइयरेसु जहावहिया - " इति । पूर्वोक्तानां - भरत, हैमवत, हरिवर्ष, महाविदेह, रम्यक, हैरण्यवतै- रवतक्षेत्राणां मध्ये भरतैरवतयीः क्षेत्रयोः खलु षट् समयाभ्याम् - षट् षट् संख्यकाः समयाः यत्र ताभ्यां षट् समयाभ्यां कालविशेषस्वरूपाभ्याम् - सुषम सुषमा - १ सुषमा - २ सुषमदुष्षमा - ३ दुष्षमसुषमा-४ दुष्षम - दुष्षम । उत्सर्पिणी काल के आरों के भी यही नाम है, किन्तु उनका नाम विपरीत होता है, जैसे दुष्पमदुष्षम, दुष्पम आदि । भरत और ऐरवत क्षेत्रों में ही यह वृद्धि - ह्रास होता है । इन दो क्षेत्रों के अतिरिक्त हैमवत, हरिवर्ष, महाविदेह रम्यक हैरण्यवत क्षेत्रों में मनुष्यों की आयु आदि ज्यों की त्यों रहती है अर्थात् उसमें वृद्धि या हानि नहीं होती । तात्पर्य यह है कि हैमवन्त आदि क्षेत्रों में न तो उत्सर्पिणी- अपसर्पिणी रूप काल का विभाग होता है । और न मनुष्यों की आयु ऊँचाई आदि में वृद्धि-ह्रास होता है । वहाँ सदैव एक सरीखा काल रहता है, अतएब काल की विषमता के कारण आयु अवगाहना आदि में होने वाली विषमता वहाँ नहीं है ॥२९॥ तत्वार्थनिर्युक्ति – पहले जम्बूद्वीप के अन्दर स्थित भरत आदि सात क्षेत्रों की प्ररूपणा की गई है । अब उन क्षेत्रों में निवास करने वाले मनुष्यों के उपयोग आयु, शरीर के उत्सेध आदि में समानता होती है होती रहती है ! इस आशंका का समाधान करने के अथवा किसी प्रकार की विशेषता लिए कहते हैं- पूर्वोक्त भरत, हैमवत, हरिवर्ष महाविदेह, रम्यक, हैरण्यवत और ऐरवत क्षेत्रों में से भरत और ऐरवत नामक क्षेत्रों में उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी कालों में मनुष्यों के भोग, उपभोग आयुष्य और शरीर के उत्सेध (ऊँचाई) आदि में वृद्धि और ह्रास होता रहता है । इन उत्स - fift और अवसर्पिणी कालों में से प्रत्येक में छह समय होते हैं, जिन्हें 'आरा' भी कहते हैं
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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