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________________ ६३३ तत्वार्थ सूत्रे द्वीप वर्तते, इत्यादिरीत्या बोध्यम् । अतएव - वलयाकाराः खलु ते - लवणोधधिप्रभृतयः स्वयम्भूरमणार्थन्ताः द्वोपसमुद्राः सन्ति । सर्वद्वीपसमुद्रान्तर्वर्ती जम्बूद्वोपस्तु - कुलालचक्राकृतिः प्रतरवृत्तोवर्तते, न तु वलयाकृतिरिति वदयते -- उक्तञ्च -- जीवाभिगमे ३ - प्रतिपत्तौ २ - उद्देशे "जंबद्दीवं णामं दीवं - लवणे णामं समुहे वट्टे वलयागारसंठाणसंठिए सव्वओ समता संपरिक्खित्ता णं चिट्ठ - " जम्बूद्रोपो नाम द्वीपो लवणो नाम समुद्रो वृत्तो वलयाकार - संस्थानसंस्थितः सर्वतः समन्तात् संपरिक्षिप्य - खलु तिष्ठति -" इति । पुनस्तत्रैवोक्तम् -- "जंबुद्दीवाइया दीवा लवणादीया समुद्दा संठाणओ एगविह विषाणा facereओ अणेगविहविधाणा दुगुणा दुगुणे पडुप्पाएमाणा पवित्थरमाणा "ओभास माणवीचिया - " इति । - जम्बूद्रीपादिका द्वीपाः, लवणादिकाः समुद्राः संस्थानतः ऐकविधविधानाः, विस्तारतोऽनेकविधविधानाः द्विगुण - द्विगुणाः प्रत्युत्पन्नायमानाः अवभासमानवीचयः - इति” ॥२०॥ मूलसूत्रम् " सव्वमंतरे वट्टे मेरुणाभिए लक्खजोयणविक्खंभे जंबुद्दीवे ॥ २१ ॥ छाया - " सर्वाभ्यन्तरो वृत्तो मेरुनाभिकः लक्षयोजनविष्कम्भो जम्बूद्वीपः - " ॥ २१ ॥ तत्वार्थदीपिका - पूर्व सूत्रे - यद्यपि सामान्यतः सर्वद्वीपसमुद्राणां विष्कम्भा - ssयामा कारादिस्वरूपाणि प्ररूपितानि, तथापि तत्रा - ऽपवादरूपेण जम्बूद्वीपस्या -ऽन्यापेक्षया किञ्चिद् को परिवेष्टित करके पुष्करवर द्वीप स्थित है । इसी प्रकार आगे भी समझ लेना चाहिए । जम्बूद्वीप और लवणसमुद्र आदि सभी द्वीप - समुद्र वलयाकार हैं अर्थात् हाथ में पहनी जाने वाली चूड़ी के समान गोलाकार हैं । मगर इन सभी द्वीप - समुद्रों के मध्य में स्थित यह जम्बूद्वीप कुंभार के चाक के समान प्रतरवृत्त अर्थात् सपाट गोल है । यह वलय के सदृश गोलाकार नहीं है । जीवाभिगमसूत्र की तीसरी प्रतिपत्ति के दूसरे उद्देशक में कहा है- 'जम्बूद्वीप नामक द्वीप को वृत्त वलयाकार संस्थान वाला लवण नामक समुद्र सभी ओर से घेर कर स्थित है ।' आगे वहीं पुनः कहा है- 'जम्बूद्वीप आदि द्वीप और लवण आदि समुद्र आकार में एक ही प्रकार के हैं अर्थात् सभी गोलाकार हैं मगर विस्तार में अनेक प्रकार के हैं - किसी का भी विस्तार किसी के बराबर नहीं है । सब एक-दूसरे से दुगुने - दुगुने विस्तार वाले हैं; पन्नाय - मान हैं, विस्तृत हैं और अवभासमान वीचियों वाले हैं ||२०| 'सव्वन्तरे वट्टे' इत्यादि ॥ सू० २१|| मूलसूत्रार्थ – समस्त द्वीप के भीतर, गोलाकार, मध्य में मेरु पर्वतवाला, तथा एक लाख योजन विस्तार वाला जम्बूद्वीप है ||२१|| तत्त्वार्थदीपिका - पूर्वसूत्र में यद्यपि सामान्य रूप से समस्त द्वीपों और समुद्रों के विस्तार लम्बाई, चौड़ाई आदि का निरूपण किया जा चुका है, तथापि अन्य द्वीपों की अपेक्षा किंचित्
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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