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________________ wwww wwwwwww ६१२ तत्त्वार्थसूत्रे ... तृतीयाद्-द्वितीयात्-प्रथमाच्च नरकान्निर्गतः कश्चिन्मनुष्यत्वं प्राप्य, तीर्थकरोऽपि भवति । देवा-नारका वा नरकेषूत्पत्तिं नाऽऽसादयन्ति तथा स्वभावात् । नापि-नरकादुवृत्य देवेषूत्पद्यन्ते । नरकादुद्वत्ताः खलु नारकास्तिर्यग्योनौ मनुष्येषु वा समुत्पद्यन्ते । आदितस्तिसृभ्यः पृथिवीभ्यः उद्धृत्य केचन-मनुप्यत्वं प्राप्य तीर्थकरत्वमपि प्राप्नुवन्ति । चतसृभ्यः खलु पृथिवीभ्य उद्धृत्य मनुष्यत्वञ्च प्राप्य केचन- निर्वाणमपि प्राप्नुवन्ति, आदितः खलु पञ्चभ्यः पृथिवीभ्य उदृत्य केचन-मनुष्यत्वं प्राप्य संयममपि प्राप्नुवन्ति । ____ षड्भ्यः पृथिवीभ्य उदृत्य पुनः केचन मनुष्यत्वं प्राप्य संयमासंयममपि प्राप्नुवन्ति । किन्तु सप्तमी पृथिवीत उद्वृत्तास्तु तिर्यक्त्वमेव प्राप्नुवन्ति, तत्र कश्चित् सम्यग्दर्शनमपि प्राप्नोति । सूत्र ॥१७॥ मूलसूत्रम्--"जहण्णेणं नारगाणं ठिई जहाकम दसवाससहस्सा-एग-ति-सत्तदस-सत्तरस-बावीसा-" ॥१०॥ छाया-"जघन्येन नारकाणां स्थितिः यथाक्रम दशवर्षसहस्राणि एक-त्रि-सप्तदश-सप्तदश-द्वाविंशति सागरोपमा-" ॥ १८ ॥ तत्त्वार्थदीपिका--पूर्वसूत्रे-रत्नप्रभादि सप्तपृथिवीषु वर्तमानानां नारकाणामायुः प्रमाणरूपा स्थिति रुत्कृष्टतः प्ररूपिता, सम्प्रति-तेषामेव जघन्येन स्थिति प्ररूपयितुमाह-"जहण्णेणं" इत्यादि । जघन्येन-जघन्यतः पूर्वोक्तेषु नरकेषु वर्तमानानां नारकाणां स्थितिः-आयुः परिमाणरूपा । दूसरे और प्रथम नरक से निकला जीव मनुष्यगति प्राप्त करके तीर्थंकर भी हो सकता हैं। देव और नारक मरकर नरकगति में उत्पन्न नहीं होते हैं । इसी प्रकार नारक जोव नरक से निकलकर सीधे देवगति में उत्पन्न नहीं होते हैं ? । नरक से निकले जीव या तो तिर्यंचयोनि में उत्पन्न होते हैं या मनुष्य गति में । पहले के तीन नरको से निकल कर कोई-कोई मनुष्य होकर तीर्थकर पद भी प्राप्त कर सकते हैं । चार नरकों से निकल कर और मनुष्यगति पाकर कोई-कोई जीव निर्वाण भी प्राप्त कर लेते हैं। प्रारंभ की पाँच पृथ्वियों से निकल कर कोई-कोई जीव मनुष्य होकर सर्वविरति संयम की प्राप्ति भी कर सकती हैं। छठो पृथ्वी से निकलकर कोई-कोई जीव मनुष्य होकर संयमासंयम (देशविरति भी प्राप्त कर सकते हैं। किन्तु सातवीं से निकले जीव तो तिर्यञ्च गति को ही पाते हैं वहाँ कोई जीव सम्यद्गर्शन भी प्राप्त कर सकता है। सूत्र--१७॥ सूत्रार्थ-'जहण्णेणं नारगाणं' इत्यादि । सूत्र १८॥ - नारकों की जघन्य स्थिति अनुक्रम से दस हजार वर्ष, एक सागरोपम, सतरह सागरोपम और वाईस सागरोपम है। सूत्र-१८॥ तत्त्वार्थदीपिका-इससे पहले के सूत्र में रत्नप्रभा आदि सातों नरकभूमियों में निवास करने वाले नारकों की उत्कृष्ट स्थिति का प्ररूपण किया गया है। अब उनकी जघन्य अर्थात्
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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