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________________ तत्त्वार्थसूत्रे कर्मणां सर्वोपघातीनि देशोपघातीनि च स्पर्द्वकानि (फेड्डकानि) भवन्ति तत्र समस्तेषु फड्डकेषु विनष्टेषु देशोपधाति फड्डकानां च समये समये आत्मविशुद्भयपेक्ष्यमनन्तै गैः क्षयं प्राप्नुवदभिदेशोप धातिभिर्भागैश्चोपशान्तैः सम्यग्दर्शन साहचर्याद ज्ञानी भवति तच्चास्य क्षयोपशमजन्यं मत्यादिज्ञान चतुष्टयं भवति, ज्ञानमेव मिथ्यादर्शनसहचरितमज्ञानं भवति नञः कुत्सनार्थकत्वादपुत्रवन् मिथ्या दृष्टेरवधिविभङ्गो व्यपदिश्यते भङ्गः प्रकारः वेः कुत्सार्थकत्वाद्विगहितोभङ्गाविभङ्गविभङ्गरूपं ज्ञानं विभङ्गज्ञानमुच्यते तथा चैतस्त्रिविधमपि ज्ञानावरणक्षयोपशमजन्यमवगन्तव्यम् । . चक्षुर्दर्शनश्रोत्राद्यात्मकाचक्षुर्दर्शनावधिदर्शत्रितयमपि दर्शनावरणकर्मक्षयोपशमादुपजायते, दानादिलब्धयः पञ्चापि अन्तरायकर्मणां क्षयोपशमाद्भवन्ति सम्यक्त्वञ्चानन्तानुबन्धि कषायदर्शनमोहक्षयोपशमाद् भवन्ति सम्यक्त्वञ्चानन्तानुबन्धि कषायदर्शनमोहक्षयोपशमादावि भवति तथा चानन्तानुबन्धिकषाय चतुष्टय मिथ्यामोहनीय मिश्रमोहनीय सम्यक्त्वमोहनीय इत्येतासां सप्तप्रकृतीनां क्षयोपशमात् क्षयोपशमिकसम्यक्त्वं भवतीति भावः । चारित्रञ्च सकलविंशतिलक्षणम् दर्शनमोहकषाय द्वादशकक्षयोपशमादुपजायते संयमश्वासावसंयमश्चेति संयमासंयमः संकल्पकृतात् प्राणातिपातन्निवृत्तिरूपः, आरम्भकृतादनिवृत्तिरूपश्च दर्शनमोहापोहादनन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यानकषा याष्टकक्षयोपशमादुपजायते इति भावः, यद्यप्यत्रापिअनुयोगद्वारसूत्रे षड्भावाधिकारे वक्ष्यमाणरीत्या है, जैसे कुपुत्र को 'अपुत्र' कहते हैं । मिथ्यादृष्टि जीव का अवधिज्ञान विभंग कहलाता है, भंग का अर्थ 'प्रकार है । 'वि' उपसर्ग कुन्सित अर्थ में है । अर्थात् अप्रशस्त भंग को विभंग कहते हैं । विभंग रूप ज्ञान विभंगज्ञान कहलाता है । यह तिनों प्रकार का अज्ञान ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से ही उत्पन्न होता है । चक्षुदर्शन, श्रोत्रादि रूप अधजदर्शन और अवधिदर्शन, यह तीनों दर्शनावरण कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न होते हैं। दान आदि पाँच लब्धियाँ पाँच प्रकार के अन्तराय कर्म के क्षयोपशम से होती हैं । सम्यक्त्व अनन्तानुबंधी कषाय तथा दर्शनमोह कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न होता है। अर्थात् चार अनन्तानुबंधी कषाय, मिथ्यात्वमोहनीय, मिश्रमोहनीय और सम्यक्त्वमोहनीय, इन सात कर्मप्रकृतियों के क्षयोपशम से क्षयोपशमिक सम्यक्त्व उत्पन्न होता है। सर्वविदित चारित्र दर्शनमोहनीय और बारह कषायों के क्षयोपशम से उत्पन्न होता है। संयमासंयम अर्थात् देवाविरति, जिसमें संकल्पपूर्वक की जाने वाली हिंसा का त्याग किया जाता है और आरंभी हिंसा का त्याग नहीं किया जाता, वह दर्शनमोहनीय तथा अनन्तानुबंधी कषाय और अप्रत्याख्यानी कषाय के क्षयोपशम से उत्पन्न होती है। _ यद्यपि अनुयोगद्वारसूत्र में, छह भावों के प्रकरण में, क्षयोपशमिक भाव के भी बहुत से भेद कहे गये हैं, तथापि संक्षेप में प्रतिपादित इन अठारह भेदों में ही उन सबका समावेश हो जाता है, अतएव पूर्वोक्त इस प्रकार है
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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