SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 599
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५९२ तस्वार्थसूत्रे वेदनाश्च असाता वेदनीयकर्मोदयनिमित्तजनितः सुतीबादिदुःखानुभवरूपाः विकृताश्च विकृतोत्तरवैक्रियशरीररूपं येषां ते—नित्याशुभतरलेश्या परिणामशरीरवेदनाविक्रियाः नारका भवन्ति तत्रलेश्यादीनां विक्रियान्तानां द्वन्द्वसमासः, द्वन्द्वादौ श्रूयमाणस्य नित्याशुभतरशब्दस्य प्रत्येकं लेश्यादावन्वयात् नित्याशुभतरलेश्याः, नित्याशुभतरपरिणामाः, नित्याशुभतरशरीराः, निन्याशुभतरवेदनाः, नित्याशुभतरविक्रियाः नारका इत्यर्थो लभ्यते नित्यशब्दश्वाऽत्रा-ऽभीक्ष्णार्थको बोध्यः नित्यप्रहसितो नित्यप्रजल्पितः इत्यादिवत् । तत्र-रत्नप्रभाशर्कराप्रभापृथिव्यो रकाणां कापोतिलेश्या, वालुकाप्रभापृथिव्यामुपरि कापोति टेश्या, अधश्च-नीललेश्या नारकाणां भवति पङ्कप्रभायां नैरयिकाणां नीललेश्या, धूमप्रभायामुपरिष्टात्-नीललेश्या-अधस्तात् कृष्णलेश्या तमःप्रभायां तेषां कृष्णलेश्या, तमस्तमःप्रभायां नैरयिकाणां परमकृष्णलेश्या भवति, एताश्च तेषां नारकाणां स्वायुषः प्रमाणावधृता लेश्याः प्रतिपादिताः । परिणामाश्च तेषां क्षेत्रविशेषनिमित्तवशादत्यन्तदुःखहेनवोऽशुभतराः शब्दवर्णरसगन्धस्पर्शा भवन्ति, शरीराणि च तेषां नारकाणामशुभनामकर्मोदयादशुभतराणि विकृताकृतीनि हुण्डसंस्थानानि निर्द्धनाऽण्डजशरीराकाराणि दुर्दर्शानि भवन्ति वेदना का तात्पर्य है असातावेदनीय कर्म के उदय से उत्पन्न होने वाला तीव्र दुःख और विक्रिया का मतलब है विकृत उत्तर वैक्रिय शरीर की विकुर्वणा । ये सब नारक जीवों में सदैव अतीव अशुभ होते हैं । मूल सूत्र में लेश्या आदि पदों में द्वन्द्व समास है । इस समास की आदि में प्रयोग किया हुआ 'नित्याशुभतर' शब्द लेश्या आदि सभी के साथ जोड़ा जाता है, अतएव आशय यह निकला कि नारक जीव नित्य अशुभतर लेश्या वाले, नित्य अशुभतर परिणाम वाले, नित्य अशुभतर शरीर वाले, नित्य अशुभतर वेदना वाले और नित्य अशुभतर विक्रिया वाले होते हैं । 'नित्यप्रहसित' या नित्यप्रजलित में जैसे 'नित्य' शब्द सातत्य सदा का वाचक है उसी प्रकार यहाँ भी सातत्य का वाचक है । उसका अभिप्राय हमेशा, सदैव, लगातार समझ लेना चाहिए। रत्नप्रभा और शर्कराप्रभा पृथ्वियों के नारक जीवों में कापोत लेश्या होती है। वालुकाप्रभा के उपरी भाग में नारकों में कापोत और नीचे के भाग में नील लेश्या होती है। पंकप्रभा के नैरयिक नील लेश्या वाले, धूमप्रभा के ऊपरी भाग के नारक नीललेश्या वाले और निचले भाग के कृष्ण लेश्या वाले होते हैं। तमःप्रभा के नारक भी कृष्ण लेश्या वाले होते हैं । तमस्तमः प्रभा के नारकों में परमकृष्ण लेश्या होती है । यह नारक जीवों की आयु के अन्त तक रहने वाली लेश्या का प्रतिपादन किया गया । नरकभूमि रूप क्षेत्र के प्रभाव से उनके परिणाम अर्थात् शब्द, रूप, रस, गंध और स्पर्श अत्यन्त अशुभ एवं दुःख के कारण होते हैं । अशुभ नामकर्म के उदय से उनके शरीर
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy