SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 589
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५८२ तत्वार्यसूचे विश्वकरणेन-विहननेन विघ्नसम्पादनेनाऽन्तरायकर्म बध्यते । तथाच-दान लाभ-भोगोपभोगवोर्याणां विघ्नसम्पादनमन्तरत्यकर्म बन्धहेतुर्भवतीति भावः ॥ १० ॥ तत्त्वार्थनियुक्तिः - पूर्व क्रमशो ज्ञानावरणादिकर्मणामेकाशीतिप्रकाराणां बन्धहेतवः प्रति पादिताः, सम्प्रत्यन्तिमस्याऽन्तरायकर्मणो बन्धहेतून् प्रतिपादयितुमाह “दाणादीण-" इत्यादि । हानादीनां-दानलाभभोगोपभोगवीर्याणां विघ्नकरणेन-विनसम्पादनेना-ऽन्तरायकर्मबन्धो भवति । तत्र-दानं तावद्देयवस्तुनस्त्यागः प्रतिविशिष्टपरिणामपूर्वकं स्ववस्तुनि परस्वत्वोत्पादनम् , तस्यैव दीयमानस्य वस्तुनः प्रतिग्रहीत्रा गृह्यमाणत्वे-आदानरूपो लाभः इत्युच्यते, २ केषामपि वस्तूनां ग्रहणम् आत्मसात्करणम्-भोगः ३ तेषामेव वस्तूनामसकृद्वारंवारं ग्रहणमुपभोगः ४ यदेकवारमेव भुज्यते, यथा--ऽज्ञानादिकम्, तद्भोगः यत्पुनर्वारंवारमप्युपभुज्यते यथा--वस्त्रादिकम् तदुपभोग इत्युच्यते ।। विशिष्टचेष्टास्वरूपात्मनो बलपरिणामविशेषो वीर्यम् इच्युच्यते-५ एतेषाञ्च-दानलाभभोगोसे अन्तराय कर्मका बंध होता है । आशय यह है, कि दान, लाभ, भोग उपभोग और वीर्य में वोनडालना अन्तराय कर्म के बन्ध का कारण है ॥१०॥ तत्वार्थनियुक्ति-इससे पहले ज्ञानावरणीय आदि बयासी प्रकार के पाप कर्म के बन्धके बन्ध हेतुओं का प्रतिपादन किया जाचुका है, अब अन्त में बचे हुए अन्तराय कर्मबन्धके हेतुओं का प्रतिपादन करने के लिए कहा है-दान लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य, में विघ्नडालने से अन्तराय कर्म का बंध होता है। अपनी वस्तु अपनी सत्तात्यागपूर्वक किसी को देना उसे दान कहते हैं १ किसी वस्तु की प्राप्ती होना उसे लाभ कहते हैं २ जो एक बार भोग में आबे वह भोग कहलाता है जैसे-आहारआदि ३, जो वार वार भोग में आ सके वह उपभोग है-जैसे वस्त्रादि ।४। धर्मादि करने में उत्साह रखना यह वीर्य है ।५। इन दानादि पांचों में विघ्न डालने से अन्तराय कर्म का बन्ध होता है। . इन दान, लाभ, भोग, उपभोग और वोये में विघ्न डालना अन्तराय कर्म के बंध का कारण है। जिस कर्म के उदय से दान देने योग्य वस्तु का भी दान नहीं दे सकता वह वह दानान्तराय कर्म कहलाता है । जिस कर्म के उदय से ग्रहण करने वाला ग्राह्य वस्तु को ग्रहण करने में असमर्थ होता है, वह लाभान्तराय कर्म है । जिस कर्म के उदय से अशन आदि का भोग करने में समर्थ होने पर भी जीव भोग नहीं सकता वह भोगान्तराय कर्म है । जिस कर्म के उदय से वस्त्र आदि का उपभोग करने में समर्थ हो कर भी जीव उसका उपभोग न कर सके, वह उपभोगान्तराय कर्म कहलाता है। जिस कर्म के उदय से जीव में वीर्य-उत्साह-पराक्रम नहीं होना, वह वीर्यान्लराय कर्म समझना चाहिये ।
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy