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________________ तत्वार्थसूत्रे संजननादयश्च रतिवेदनीयकर्मबन्धहेतवो भवन्ति-२ मोहनीयोदयात्समुत्पन्नमनोविकारपररागप्रादुर्भावरतिविध्वंसपापशीलताऽकुशलक्रियाप्रोत्साहनस्त्येयादयः पुनररतिवेदनीयपापकर्मबन्धहेतवो भवन्ति-३ मोहनीयप्रकृतिसमुत्थात्मपरिणामस्वयं भयपरिणामभयोपजनन निष्करुणत्व त्रासादयश्च-भयकर्मबन्धहेतवो भवन्ति-४ यद्धर्माचरणतत्परं चतुर्वर्णकुशलक्रियाचारप्रवणजुगुप्सापरिवादशीलत्वादयो जुगुप्सा कर्मबन्धहेतवो द्रष्टव्याः, [यदा मान सनिमित्तमनिमित्तं वा धर्म प्रति घृणोत्पादः] यदुदया दिष्टवियोगाऽनिष्टसंयोगजनितचित्तोदेकनिजशोकोत्पादशोचनपरदुःखनिर्हेतुक शोकमूलताभिनन्दित्वादयः शोकवेदनीयकर्मबन्धहेतवो भवन्ति-६ ईर्ष्यालुत्वाऽनृतवादित्ववक्रत्वपरदाररतिप्रियतादयः स्त्रीवेदबन्धहेतवः-७ ऋजुसमाचारता मदनोधकषायादिना स्वदाररतिप्रियताऽनीर्ष्यालुतादयश्च पुरुषवेदबन्धहेतवो भवन्ति-८ तीवक्रोधादिना पशूनां मुण्डनरतित्वम्, स्त्री-पुरुषेषुकामसेवनशीलत्वम् शीलवतगुणवतां पाषण्डस्रोब्यभिचारकारित्वम् , तीविषयानुबन्धित्वञ्च नपुंसकवेदबन्धहेतवो भवन्ति -. ९ से क्रीडा करना, दूसरों के चित्त को आकर्षित करना, अनेकविध रमण करना, पीडा का अभाव, देशादि के विषय में उत्सुकता-प्रीति-उत्पन्न करना, आदि कारणों से रति वेदनीय कर्म का बन्ध होता है। . (३) मोहनीय कर्म के उदय से उत्पन्न होने वाले मनोविकार, परराज, प्रादुर्भाव, रतिविध्वंस पापशीलता, अशुभ कृत्यों में प्रोत्साहन, चौर्य आदि अरतिवेदनीय पाप कर्म के बन्ध के कारण होते हैं। (४) मोहनीय कर्म के उदय से स्वयं के प्रति भय का परिणाम उत्पन्न होना, दूसरे को भय उत्पन्न कराना, करना हीनता होना, त्रास पाना या पहुँचाना आदि भय कर्म के बन्ध के कारण हैं। (५) धर्म का आचरण करने में तत्पर श्रमण, श्रमणी श्रावक, श्राविका के कुशल क्रिया के आचरण के प्रति घृणाभाव रखना, उनकी निन्दा करना आदि कारणों से जुगुप्सा कर्म का बन्ध होता है। (६) इष्ट वस्तु का वियोग और अनिष्ट का संयोग होने चित्तमें शोक का उदेक होना, शोक निमग्न रहना, दूसरे को दुःख देना, ष्किारण शोकाकुल बना रहना, इत्यादि कारणों से शोकवेदनीय कर्म का बंध होता है। । (७) ईर्षालुता, असत्य भाषण, वक्रता, परस्त्री लम्पटता आदि से स्त्रीवेद का बंध होता है। (८) सीधा-सरल व्यवहार करने से, स्वस्त्री में रतिप्रियता होने से, ईर्ष्यालुता का अभाव होने से पुरुष वेद कर्म का बन्ध होता है। (९) तीव्र क्रोध आदि से पशुओं के मुंडन में रति होना, स्त्री और पुरुष-दोनों के साथ
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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