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________________ दोपिकानिथुक्तिश्च अ० ५ सू.४ अशातावेदनीयकर्मणोर्बन्धकारणनिरूपणम् ५६७ पर्यन्ताः, भूताः-वनस्पतयः, जीवाःपञ्चेन्द्रियाः-सत्त्वाः-पृथिव्यप्तेजोवायवः । उक्तश्च-"प्राणाद्वि-त्रि-चतुः प्रोक्ताः, भूतास्तु तरवः स्मृताः । जीवाः पञ्चेन्द्रियाः प्रोक्ताः शेषाः सत्वा उदीरिताः ॥१॥ इति ॥ एषां चतुर्णा दुःखनेन-दुःखोत्पादनेन, शोचनेन शोकोत्पादनेन, जूरणेन-शरीरशोषकशोकोत्पादनेन, तेपनेन-अश्रुपातचीत्कादिजनकशोकोत्पादनेन, पिट्टनेन-यष्टयादिना ताडनेन, परितापनेन-शारीरिकसन्तापोत्पादनेन, इत्येवं द्वादशभिः कारणे जर्जीविस्याशातावेदनीयं कर्म बध्यते । उक्तञ्च भगवती सूत्रे ७ शतके ६-उ. के "कई णं भंते ! जीवाणं असायावेणिज्जा कम्मा किति ,, गोयमा ! परदुक्खणयाए परसोयणयाए परजूरणयाए परतेषणयाए परपिट्ट णयाए परपरियावणयाए बहूणं पाणाणं जाव सत्ताणं दुक्खणयाए सोयणयाए जाघ परियावणयाए, एवं खलु गोयमा ! जीवाणं अस्सायावेयणिज्जा कम्मा किति-, इति . छाया-कथं खलु भदन्त ! जीवानामशातावेदनीयानि कर्माणि क्रियन्ते ? गौतम, परदुःखनतया परशोचनतया परजूरणतया परतेपनतया परपिट्टनतया परपरितापनतया बहूनां प्राणीनां यावत्-सत्त्वानाम् दुःखनतया शोचनतया यावत् परितापनतया, एवं खलु गौतम ! जीवानाम् असातावेदनीयानि कर्माणि क्रियन्ते, इति । सूत्र-४॥ "तित्थयरायरियोवज्झायकुलगणसंघमुयधम्म सुरावण्णवादेणं मिच्छत्तमोहणिज्ज" ॥५॥ छाया-'तीर्थकरा-ऽऽचार्यो-पाध्याय कुल गण संघश्रुतधर्म सुराऽवर्णवादेन मिथ्यात्वमोहनीयम्" ॥५॥ तत्त्वार्थदीषिका--- "पूर्वसूत्रे यशीति पापकर्मभोगेष्वसद्वेधस्य पापकर्मणो बन्ध विकलेन्द्रिय द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय प्राण कहलाते है । भूत शब्द से वनस्पतिकाय लिया जाता है । जीव शब्द से पञ्चेन्द्रिय लिये जाते हैं और पृथिवी पानी अग्नि वायु ये सत्त्व कहलाते हैं-कहा भी है-"प्राणा-द्वि-त्रि-चतुःप्रोक्ताः ' इत्यादि । इन चारों को दुःखन-दुःख पहुँचाने से, शोचन-शोक पहुँचाने से, जूरण-अर्थात् शरीर सूखाने जैसा-शोक पहुँचाने से, तेपन-जिससे अश्रुपात गिरने लगे चिल्लाने लगे ऐसा शोक पहुंचाने से, पिटन-लाठी आदि-द्वारा पीटने से, और परितापन-शारीरिक मानसिकसन्ताप पहुचाने से । जीव के अशाता वेदनीय कर्म का बन्ध होता है ।सूत्र ४॥ . सूत्रार्थ-'तित्थयरायरियावसाय' इत्यादि तीर्थंकर, आचार्य, उपाध्याय, कुल, गण, संघ, श्रुत, धर्म, और देवों का अवर्णबाद करने से मिथ्यात्व का बन्ध होता है ॥५॥ ... तत्त्वार्थदीपिका-बयासी पापकर्म प्रकृतियों में से पूर्व सूत्र में .असाता वेदनीय कर्म
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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