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________________ वीपिकानियुक्तिश्च अ० ५ सू. ४ आशातावेदनीयकर्मणोर्बन्धकारणनिरूपणम् ५६५ योगेन, दर्शनावरणोय कर्म शरीरप्रयोगबन्धः खलु......गौतम ! दर्शनप्रत्यनीकतया, एवं ज्ञानावरणीयं नवरं दर्शन नाम ग्रहीतव्यम् इति । सूत्र-३॥ सूत्रम्--'असायावेयणिज्ज परदुक्खणयाइहिं ॥सूत्र-४॥ छाया—अशातावेदनीय परदुःखनतादिभिः ॥ सूत्र-४॥ तत्वार्थदीपिका-पूर्व ज्ञानावरणीयदर्शनावरणीयकर्मणो बन्धकारणानि प्रदर्शितानि साम्प्रतं पापतत्त्वप्रसंगाद् अशातावेदनीयकर्मबन्धस्य कारणानि प्ररूप्यन्ते-'असायावेयणिज्ज' इत्यादि । "असायावेयणिज्जं" अशाता वेदनीयं 'परदुक्खणयाडहिं' परदुःखनतादिभिः परदुक्खनतादिभि दशभिः कारणैरशातावेदनीयकर्म बध्यते, तेन जीवस्य शारीरमानसी अशाता समुद्भवति । आदि शब्देन परशोचनता २, परजूरणता ३, परतेपनता ४ परपिट्टनता ५, परपरितापनता ६, एवं बहूनां प्राणभूतजीवसत्त्वानां विषयेऽपि दुःखनतादीनां षण्णां समाचारणम् एभिः द्वादशभिः कारणैर्जीवस्याऽशातावेदनीयं कर्म बध्यते । सूत्र-४॥ तत्वार्थनियुक्ति:-पूर्वसूत्रे प्रत्यनीकतादीनि षट्ज्ञानावरणीयस्य दर्शनावरणीयस्य च कर्मणो बन्ध होता है । जिन कारणों से ज्ञानावरणीय कर्म बन्धता है, उन्ही कारणों से दर्शनावरण कर्म का भी बंध होता है । भेद इतना ही है कि ज्ञान सम्बन्धी प्रत्यनीकता आदि से ज्ञानावरण और दर्शन संबंधी प्रत्यनीकता से दर्शनावरणकर्म का बन्ध होता है ।सूत्र-३॥ सूत्रार्थ- 'असायावेयणिज्जं' इत्यादि ॥४॥ पर दुःखनता आदि से अशाता वेदनीयकर्म का बन्ध होता है ।।सू० ४॥ तत्त्वार्थदीपिका-पूर्वसूत्र में ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीय कर्म बन्ध के कारण दिखाये गये हैं, अब पाप तत्त्व के प्रसंग से अशातावेदनीय कर्म बन्ध के कारण प्रदर्शित करते हैं -'असायावेयणिज्ज' इत्यादि । अशातावेदनीय कर्म परदुःखनता आदि बारह कारणों से बन्धता है, उससे जीव के शारीरिक और मानसिक अशाता का उद्भव होता है। आदि शब्द से संगृहीत बारह कारण ये हैं---पर दुःखनता-दूसरे को दुःख पहुँचाना १, परशोचनता-दूसरे को शोक पहुँचाना २, परजूरणता-दूसरे को शरीर शोषण जनक शोक पहुँचाना ३, परतेपनता-दूसरे को अश्रुगिरने लगे ऐसा शोक पहुँचाना ४, परपिट्टनता-दूसरे को लाठी आदि से पीटनी ५, पर परितापनता-दूसरे को शारीरिक मानसिक सन्ताप पहुँचाना ६, इसी प्रकार प्राण भूत जीव सत्त्वों के विषय में भी पूर्वोक्त दुःखनता आदि छहों का समाचरण करना १२ इन बारह प्रकार के कारणों से जीवके अशाता वेदनीय कर्म का बन्ध होता है ।सूत्र ४॥ तत्त्वार्थनियुक्ति--पूर्वसूत्र में ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीय कर्म के प्रत्यनीकता आदि छह बन्ध के कारण प्रतिपादित किये गये हैं, अब पाप तत्त्व के प्रसंग से अशातावेदनीय कर्म
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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