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________________ ५६५ तस्वार्थसूत्र तत्त्वार्थभियुक्तिः- पूर्वं ज्ञानावरणादि द्वयशोतिप्रकारपापकर्मणां स्वरूपाणि अरूपितानि, सम्प्रति-तेषां मध्ये पञ्च ज्ञानावरण नव दर्शनावरणपापकर्मबन्धनहेतून् प्ररूपक्तुिमाह 'माणसणाणं पडिणीययाइहिं णाणदंसणावरणं' इति । ज्ञानदर्शनयोः प्रत्यनीकतादिभि निदर्शनावरणम् इति । ज्ञानस्य-मति तावधिमनःपर्यवकेवलज्ञामरूपस्य पञ्चविधस्य दर्शनस्य च चक्षुरचक्षुरवधिकेवलरूपस्य चतुर्विधम्य ये प्रत्यनीकतादय उपधाताः तैः खलुउपघातै आनावरणं-दर्शनावरणरूप पापकर्मणी बध्येते । तत्र-ज्ञानविषयाः प्रत्यनीकतादयो ज्ञानावरण, पापकर्मणो बन्धनहेतवो भवन्ति, दर्शनविषयाः प्रत्यनीकतादयश्च दर्शनावरणस्य पापकर्मणो बन्धहेतवो भवन्ति । इति द्रष्टव्याः-अत्रादिशब्देन निह्नवता, अन्तराय; प्रद्वेषः अत्याशातना विसंवादनायोगः, एषां पञ्चानां पदानां संग्रहः कर्त्तव्यः, तेन ज्ञानस्य दर्शनस्य च प्रत्यनीकतादिभिः षभिहेतुभि निावरण दर्शनावरणं च कर्म बध्यते इति बोध्यम्, तथाहि-ज्ञानप्रत्यनीकतया १, ज्ञाननिह्नवतया २, ज्ञानान्तरायेण ३, ज्ञानप्रद्वषेण ४, ज्ञानात्याशातनया ५, ज्ञानविसंवादनायोगेन ६, इत्येवं संयोज्यम् । तत्त्वार्थनियुक्ति-पूर्वसूत्र में ज्ञानावरण आदि बयासी प्रकार के पापों का स्वरूप कहा गया है अब उनमें से प्रथम पाँच प्रकार के ज्ञानावरण और नौ प्रकार के दर्शनावरण पापकर्म के बन्ध के कारण बताते हैं-'णाणदंसणाणं' इत्यादि । ज्ञान और दर्शन की प्रत्यनीकता आदि करने से ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्म बंधता है । ज्ञान-मति श्रुत, अवधि, मनःपर्यव और केवलज्ञान के भेद से पाँच प्रकार का होता है । दर्शन-चक्षु, अचक्षु अवधि और केवलदर्शन के भेद से चार प्रकार का होता है । इस प्रकार पाँच प्रकार के ज्ञानके और चार प्रकार के दर्शन के प्रत्यनीकता आदि छह उपघातक होते हैं । इनके आचरण से ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्म का बन्ध होता है । ज्ञान के पाँच भेद होने से ज्ञानावरण भी पाँच प्रकार का होता है, दर्शनावरण नौ प्रकार का होता है-चक्षुर्देर्शनावरण, अचक्षुर्दर्शनावरण अवधिदर्शनावरण, और केवलदर्शनावैरण, एवं-निद्रा, निद्रा निद्रा, प्रचला, प्रचला प्रचला और स्त्यानद्धिं ऐसे नौ प्रकार का है । यहां ज्ञान विषयक प्रत्यनीकता आदि ज्ञानावरण पापकर्म के बंध के कारण और दर्शन विषयक प्रत्यनीकता आदि दर्शनावरण कर्म के बन्ध के कारण होते हैं ऐसा समझना चाहिये । यहां आदि शब्द से निह्नवता अन्तराय, प्रद्वेष, अत्याशातना और विसंवादनायोग, इन पांच पदों को ग्रहण करना चाहिये। अर्थात् ज्ञान और दर्शन को प्रत्यनीकता आदि छह कारणों से ज्ञानावरण और दर्शनावरण का बन्ध होता है, ऐसा कहना चाहिये जैसे-ज्ञान प्रत्यनीकता १ ज्ञान निह्नवता २, ज्ञानान्तराय ३, ज्ञानप्रद्वेष ४, ज्ञान की अत्याशातना ५ और ज्ञानका विसंवादनयोग ६ ऐसे
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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