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________________ दीपिकानियुक्तिश्च अ० ५ सू. २ पापकर्मणः फलभोगनिरूपणम् ५५९ अन्तर्गतौ वर्तमानस्य क्षेत्रसन्निवेशक्रमरूपा-ऽऽनुपूर्वी विज्ञेया । अन्तर्गतिश्च-द्विविधा, ऋज्वीवक्राच, तदुभयत्रापि आनुपूर्वी नामकर्म । एवम्-उपघातनामापि पापकर्मभवति, शरोराङ्गो पाङ्गोपघातजनकत्वात् । एवम्-अप्रशस्तविहायोगतिनामापि पापकर्म भवति । एवं-स्थावरनामापि पापकर्मवर्तते, तस्या-ऽदृश्य लक्षणसूक्ष्मशरीरनिर्वर्तकत्वात् । __एवम्-अपर्याप्तकनामापि पापकर्मभवति, अपर्याप्ति निर्वर्तकत्वात् । तथाच-यस्य कर्मण उदये सति पर्याप्तयः परिपूर्णतां नासादयन्ति, अपर्याप्तएव म्रियते, कदाचिद्वा तद्विनापि भवति । यथा-संमूछैनज मनुष्यादिः तत्कर्माऽपर्याप्तिनामपदेनो-च्यते । एवं-साधारणशरीरनामापि पापकर्म भवति, अनेकजीव साधारणशरीरनिर्वर्तकत्वात् । अनन्तानां जीवानामेकं शरीरं साधारणं किसलय-निगोद-वज्रकन्दप्रभृति । तत्र-यथैकस्य परिभोगो भवति, तथा-ऽनेकस्यापि जीवस्येति, तद्भिन्नं सद् यस्य कर्मण उदयान्निवर्तते तत् साधारणशरीरनाम व्यपदिश्यते । एवम् – अस्थिरत्वनामापि पापकर्म भवति शरीरावयवानां कर्ण-त्वगादीनामस्थिरतारूप चलता निवर्तकत्वात् । एतदुदयाद् शरीरावयवानां स्थिरता न भवतीतिभावः । एवम्-अशुभनामापि पापकर्मभवति पादादि शरीरावयवानां निवर्तकत्वात् । अत एव विग्रह- अन्तराल गति में वर्तमान जीव के क्षेत्रसन्निवेशक्रम को आनुपूर्वी कहते हैं। अन्तरालगति दो प्रकार की है-ऋज्वी (सीधी-जिसमें मुड़ना न पड़े) और वक्रा (मोड़ वाली)। दोनों में आनुपूर्वी नामकर्म का उदय होता है। उपघात नामकर्म भी पापप्रकृति है, क्योंकि वह अपने ही शरीर के अंगोपांगों के उपघात का कारण है । अप्रशस्तविहायोगति भी पापकर्म है और स्थावर नामकर्म भी पाप में ही परिगणित है, क्योंकि उसके उदय से अवश्य सूक्ष्म शरीर की उत्पत्ति होती है। अपर्याप्त नाम कर्म भी पापकर्म है, क्योंकि उसके उदय से पर्याप्तियों की पूर्ण रूप से प्राप्ति नहीं होती। जिस कर्म के उदय से यथायोग्य पर्याप्तियाँ पूरी नहीं हो पाती और अपर्याप्त अवस्था में ही मृत्यु हो जाती है, वह अपर्याप्त नामकर्म कहलाता है। साधारण शरीर नामकर्म भी पापकर्म है, क्योंकि उसके फलस्वरूप ऐसे शरीर की प्राप्ति होती है जो अनन्त जीवों के लिए साधारण (एक ही शरीर) होता है। किसलय (को पल), निगोद और वज्रकंद आदि के ऐसे ही साधारण शरीर होते हैं । वहाँ जैसा परिभोग एक जीव का होता है, वैसा ही अनेक जीवों का होता है । अस्थिर नामकर्म भी पापकर्म हो है। क्योंकि उसके उदय से शरीर के अस्थिर अवयाव उत्पन्न होते हैं । जिसको इस कर्म का उदय होता है, उसके शरीर के अवयवों में स्थिरता नहीं होती।
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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