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________________ तस्वास्ने त्तरेषु पञ्चैव विमानानि सन्ति । एवं-स्थानपरिवारशक्तिविष्यसम्पत् स्थितिषु चोत्तरोत्तरदेवाः पूर्वपूर्वदेवापेक्षयाऽल्पाःभिमानाः परमसुखभागिनो भवन्तीति भावः । उक्तञ्च प्रज्ञापनायाः २१- शरीरपदे " असुरकुमारभवणवासिदेवपंचिंदियवेउब्वियसरीरस्स णं भंते ! के महालया ओगाहणा पण्णत्ता गोयमा ! असुरकुमाराणं देवाणं दुविहा सरीरोगाहणा पण्णत्ता तं जहा-भवधारणिज्जा य उत्तरवेउव्विया य, तत्थ णं जा सा भवधारणिज्जा सा जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागो उक्कोसेणं सत्तरयणीओ तत्थ णं जा सा उत्तरवेउन्विया सा जहण्णेणं अंगुलस्स संखेज्जइभागो, उक्कोसेणं जोयणसयसहस्सं एवं जाव थणियकुमाराणं एवं ओहियाणं वाणमंतराणं एवं जोइसियाण वि सोहम्मीसाणदेवाणं एवं चेव, उत्तरवेउव्विया जाव अच्चुओ कप्पो, नवरं सणकुमारे भवधारणिज्जा जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागे, उक्कोसेणं छ रयणीओ, एवं माहिंदे वि, बंभलोयलंतगेसु पंचरयणीओ, महामुक्क सहस्सारसु चत्तारि रयणीओ, आणय-पाणयआरणच्चुएसु तिण्णि रयणीओ । गेविज्जग-कप्पातीयवेमाणियदेवपंचिंदियाणं वेउब्वियसरीरोगाणा के महालया पण्णत्ता ? गोयमा ! गेविज्जगदेवाणं एगा भवधारणिज्जा सरीरोगाहणा पण्णत्ता सा जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागो उक्कोसेणं दो रयणी, एवं अनुत्तरोववाइयदेवाण वि, णवरं एक्का रयणी" छाया- "असुरकुमारभवनवासिदेवपञ्चेन्द्रियवैक्रियशरीरस्य खलु भदन्त ! किं महालया अवगाहना प्रज्ञप्ता ? गौतम ! असुरकुमाराणां देवानां द्विविधा शरीरावमाहना प्रज्ञप्ता तद्यथाभवधारणीया च उत्तरवैक्रिया च । तत्र खलु याऽसौ.भवधारणीया-सा जघन्येन अंगुलस्यासंख्येयभागः उत्कृष्टेन सप्तरत्नयः । तत्र खलु या उत्तरवैक्रिया सा जघन्येनांऽगुलस्य संख्येयभागः उत्कृष्टेन-योजनशतसहस्रम् । पाँच अनुत्तरों में पांच ही विमान हैं । इसी प्रकार स्थान, परिवार, शक्ति, विषय, सम्पत्ति और स्थिति आदि का अभिमान आगे-आगे के देवों को पहले-पहले वाले देवों की अपेक्षा कम होता है। आगे-आगे के देव उत्कृष्ट सुख के भागी होते हैं । प्रज्ञापना सूत्र के इक्कीसवें शरीरपद में, कहा है प्रश्न-भगवन् भवनवासियों में जो असुरकुमार देव हैं, उनके वैक्रिय शरीर की अवगाहना कितनी बड़ी है। उत्तर--गौतम ! असुरकुमार देवों की अवगाहना दो प्रकार की कही गई है-एक भवधारणीय शरीर की अर्थात् उस भव में सदैव रहने वाले मूल शरीर की अवगाहना और दूसरी उत्तर वैक्रिय अर्थात् कभी-कभो विक्रिया लब्धि से बनाये जाने वाले शरीर की अवगाहना । उनके भवधारणीय शरीर की अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग. को ओर उत्कृष्ट सात हाथ की होती है। उत्तर वैक्रिय शरीर की जघन्य अक्साहना
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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