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________________ ५४४ तत्त्वार्थसूत्रे एवम्-अवधिज्ञानविषयतोऽपि-उत्तरोत्तरदेवा अधिकाः । यथा-सौधर्मेशानयोर्देवा अवधिज्ञानविषयेणाऽधोरत्नप्रभापृथिवीचरमान्तं पश्यंति-तिर्यगअसंख्येयानि द्वीपसमुद्राणिऊर्ध्वम् आदिमानात् । सनत्कुमार-माहेन्द्र कल्पयोर्देवाः-अधः शर्कराप्रभापृथिवीचरमान्तं पश्यन्ति तिर्यगअसंख्येयानि द्वीपसमुद्राणि । ऊर्ध्वम् आदिमानात् एवंरीत्योत्तरोत्तरमधिकमवसेयम् अनुत्तरौपपातिकाः पुन-विजयवैजयन्तादयः पञ्च देशोन लोकं पश्यन्ति, देशान्तरगमनलक्षणगतिविषयतः, शरीरदैर्ध्यतः, परिग्रहतः, अभिमानतश्चोत्तरदेवाः पूर्व-पूर्वदेवापेक्षया हीना भवन्ति नत्वधिकाः। यथा द्विसागरोपमजघन्यस्थितिका देवाः सप्तमपृथिवी पर्यन्तं गच्छन्ति तिर्यग्- असंख्येयानि द्वीपसमुद्राणि यावत् गच्छन्ति असुरकुमारा देवाः पुनस्तृतीया पृथिवीं यावत् पूर्ववैरिकस्य वेदनोदीरणार्थ पूर्वसाङ्गतिकस्य च वेदनोपशमनार्थं गच्छन्ति तिर्यग्नन्दीश्वरद्वीपं यावद् गच्छन्ति(भग० श० ३ उ० २ सूत्र १) ___ महानुभाव क्रियातो-माध्यस्थ्याच्चोपर्युपरिदेवाः गतिरतयो न भवन्ति । वस्तु ग्रहण करते हैं; उत्तरोतर देव उनको अपेक्षा अधिक दूर की वस्तु-विषय को जानते हैं । इसका कारण यह है कि उत्तरोत्तर देव उत्कृष्ट गुणों वाले अल्पतर संक्लेश वाले होते हैं। अवधिज्ञान भी पूर्व-पूर्व के देवों की अपेक्षा उत्तर-उत्तर के देवों में अधिक पाया जाता है। उदाहरणार्थ - सौधर्म और ईशान कल्प के देव अवधिज्ञान के द्वारा नीचे रत्नप्रभा के चरमान्त-अन्तिमभाग तक देखते-जानते हैं, तिछी दिशा में असंख्यात द्वीप समुद्रों तक जानते देखते हैं और ऊपर अपने-अपने विमानों तक अर्थात् विमानो की ध्वजा तक जानते-देखते हैं । सनत्कुमार और माहेन्द्र कल्प के देव नीचे शर्कराप्रभा पृथ्वी के चरमान्त तक जानतेदेखते हैं, तिर्की दिशा में असंख्यात द्वीप समुद्रों को जानते-देखते हैं और ऊपर अपनेअपने विमानों की ध्वजा तक जानते-देखते हैं। __ इस प्रकार अवधिज्ञान का क्षेत्र आगे-आगे के देवों का अधिक-अधिक होता है । विजय वैजयन्त आदि पॉच अनुत्तर विमानों के देव अपने अवधिज्ञान से एक देश ऊन लोक को जानते-देखते हैं। किन्तु देशान्तर में गमन रूप गति शरीर की लम्बाई परिग्रह और अभिमान ये सब पूर्व-पूर्व के देवों की अपेक्षा उत्तरोत्तर देवों के कम होते हैं। जैसे-दो सागर की जघन्य स्थिति वाले देव नीचे सातवीं पृथ्वी तक जाते हैं और तिर्की दिशा में असंख्यात द्वीप समुद्रो तक जाते है । असुरकुमार देव तीसरी पृथ्वी तक जाते हैं ये देव अपने पूर्वभव के साथी मित्र को शाता उपजाने के लिये और पूर्वभव के वैरीको वेदना देने के लिये वहाँ जाते हैं (भग० श०३ उ०२सू०१) उससे आगे अतीत काल में न कभी गए हैं वर्तमान में न कभी जाते हैं और न भविष्यत में जाएँगे ऊपर के देवों में महानुभावता अधिक होती है और माध्यस्थ-भाव भी अधिक होता है इस कारण इधर-उधर जाने में उनकी रुचि नहीं होती।
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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