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________________ दीपिकानियुक्तिश्च अ० ४ सू. २३ कल्पोपपन्नकदेवानामिन्द्रादिनिरूपणम् ५२१ भोगो-पभोगादिकं येषामस्ति ते सामानिका उच्यन्ते महत्तरा इत्यर्थः-२ पितृगुरूपाध्यायसदृशाः त्रयलिंशदेवा त्रायस्त्रिशकाः' मन्त्रि-पुरोहितस्थानीयाः वयस्य-सन्धानकारि-पीठमर्दादितुल्याः३ आत्मरक्षकाः-आत्मन इन्द्रस्य रक्षा येभ्यस्ते आत्मरक्षकाः अङ्गरक्षकोपमानाः ४ । लोकपालाःलोकं पालयन्तीति लोकपालाः, आरक्षकसमानाः, कोषाध्यक्षादिसदृशाः, कोट्टपालाः पत्तनरक्षकाःमहातलवराः । दुर्गपालसमाना लोकपाला उच्यन्ते ५ । परिषदुपपन्नकाः-पारिषदा ६.। अनीकाधिपतयः-पदादि हस्तिधोटकरथचरादिसप्तविधानामनीकानां सेनानामधिपतयःअनीकाधिपतयः दण्डस्थानीय। उच्यन्ते-८ प्रकीर्णकाः पौरजानपदसदृशाः-८ आभियोगिकाः-वाहनादिकर्मणि प्रवृत्ताः दाससदृशाः उच्यन्ते ९ किल्बिषिकाः किल्बिष पापं येषामस्ति ते किल्बिषाः दिवाकीर्ति समानाश्चाण्डालतुल्याः किल्बिषिका उच्यन्ते १० एते दश-दश तावद् इन्द्रादयः सौधर्मादिषु अच्युतान्तेषु द्वादशसु वैमानिकेषु इन्द्रादयोदशदश यथायोग्यं प्रत्येकं क्वचिद्वयो योर्मध्ये च भवन्तीति भावः ॥२३॥ ___ तत्त्वार्थनियुक्तिः--पूर्वं तावत् चतुर्विधानामपि देवानां भवनपति-वानव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकानां कृष्णनीलादिषविधलेल्या यथायथं प्रतिपादिताः सम्प्रति तेषां देवानाम् आज्ञैश्वर्य भोगोपभोगादिसम्पादनार्थ रूलु यथायथेन्द्रादयो दश भवन्ति, तत्र-प्रथमं कल्पोपन्नक(३) त्रायस्त्रिंश- ये मंत्रि और पुरोहित स्थानीय हैं । मित्र, पीठ मर्द आदि के समझना चाहिए (४) आत्मरक पर इन्द्र की रक्षा करने वाले, अंगरक्षक के समान (५) लोकपाल-लोक-जनता की रक्षा करने वाले, कोषाध्यक के समान अर्थचर, कोतवाल के समान देशरक्षक, दुर्गपाल के समान महातलवर देव लोकपाल कहलाते हैं । (६) पारिषद-सदस्यों के समान । (७) अनीकाधिपति-पैदल, हस्ती, अश्व, रथचर आदि सात प्रकार की सेनाओं के अधिपत्ति इन्हें दण्डस्थानीय भी कह सकते हैं। (८) प्रकीर्णक-नागरिक जनता के समान । (९) आभियोगिक-दास के समान जो वाहन आदि के काम में आते हैं। (१०) किल्विषिक-- दिवाकीर्ति नापित के समान, चाण्डाल के समान भिन्न कोटि के देव । इन्द्र आदि ये दस भेद सौधर्म आदि अच्युत देव लोक तक वारों वैमानिकों में ये दसों भेद पाये जाते हैं । कहीं-कहीं दो- दो देव लोकों में ये भेद होते हैं ॥ २३ ॥ तत्वार्थनियुक्ति-इससे पहले भवनपति, वानव्यन्तर ज्योतिष्क और वैमानिक देवों की कृष्ण नील आदि छह लेश्याओं का यथायोग्य प्रतिपादन किया गया; अब इन्हीं देवों के आज्ञा, ऐश्वर्य, भोग उपभोग आदि के सम्पादन के लिए इन्द्र आदि दस भेद होते हैं, उन का प्रतिपादन करने केलिए प्रथम भवनपति और कल्पोपपन्नक वैमानिक देवों में होने वाले दस भेदों का प्रतिपादन ६६
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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