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________________ दोपिकानियुक्तिश्च अ० ४ सू. २२ भवनपत्यादिदेवानां लेश्यावत्वादिकम् ५१९ __ तत्र सौधर्मे-शानयोस्तावत् तेजो लेश्या भवति । सनत्कुमार-माहेन्द्र ब्रह्मलोकेषु च पद्मलेश्या भवति । लान्तक-महाशुक्र-सहस्रारा-ऽऽनत-प्राणता-ऽऽरणाऽच्युतनवप्रवेयकाणामेका शुक्ला लेश्या भवति । ऊपर्युपरि पुनस्ता लेश्या विशुद्धतरा अवसेयाः । पञ्चानुत्तरोपपातिकेषु च परमशुक्ललेश्या भवति, "उक्तञ्च स्थानङ्गे १-स्थाने ५१-सूत्रे-"भवणवइ-वाणमंतराणं चत्तारि लेस्साओ, जोइसियाणं एगा तेउलेस्सा, वेमाणियाणं तिन्नि उवरिमलेस्साओ-" इति । भवनपति-वानव्यन्तराणां चतस्रो लेश्याः, ज्योतिष्काणामेका तेजोलेश्या, वैमानिकानां तिस्र उपरितनलेश्या इति । तत्राऽऽध्याश्चतस्रः कृष्णनीलकापोततेजो लेश्या भवनपति-वानव्यन्तराणां देवानामवसेयाः । ज्योतिष्काणां-चन्द्रसूर्यग्रहनक्षत्रतारारूपाणां तेजोलेश्या एवाऽवग न्तव्या । तत्र-सौधर्मेशानयोस्तेजोलेश्याः सनत्कुमार-माहेन्द्र-ब्रह्मलोकानां पद्मलेश्या, शेषाणां शुक्ललेश्या उत्तरोत्तरं विशुद्धाश्च ता लेश्या बोध्याः । उक्तञ्च जीवाभिगमे ३-प्रतिपत्तौ १-उद्देशके, प्रज्ञापनायां १७-पदे-१ उद्देशेच "सोहम्मीसाणदेवाणं कतिलेस्साओ पण्णत्ताओ ? गोयमा ! एगा तेऊलेस्सा पण्णत्ता' सणंकुमारमाहिदेसु एगा पम्हलेस्सा एवं बलोगेवि पम्हा, सेसेसु एक्का मुक्कलेस्सा, अणुत्तरोववाइयाणं एका परमसुक्कलेस्सा-" इति सौधर्मेशानदेवानां कति लेश्याःप्रज्ञप्ता, सनत्कुमार-माहेन्द्रयो रेका पद्मलेश्या । एवं ब्रह्मलोकेऽपि पद्मा, शेषेषु एका शुक्ललेश्या, अनुत्तरोपपातिकानामेका परमशुक्ला इति ॥२२॥ वैमानिकों में सौधर्म और ईशान में तेजोलेश्या पाई जाती है । सनत्कुमार, माहेन्द्र और ब्रह्मलोक में पद्म लेश्या पाई जाती है, लान्तक, महाशुक्र, सहस्रार, आनत, प्राणत आरण और अच्युत में तथा नवग्रैवेयकों और पाँच अनुत्तरौपपातिक में शुक्ललेश्या होती है । यह शुक्ललेश्या ऊपर-ऊपर अधिक विशुद्ध होती है। स्थानांगसूत्र के प्रथम स्थान में कहा है-भवनपतियों और वानव्यन्तरो में चार लेश्याएं होती हैं, ज्योतिष्को में एक तेजोलेश्या होती है और वैमानिकों में अन्त की तीन लेश्याएं होती हैं। _इनमें प्रारम्भ की चार कृष्ण, नील, कापोत और तेजोलेश्या भवनपतियों और वानव्यन्तरों में होती हैं । चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र, और तारा नामक पाँच ज्योतिष्कों में एक तेजोलेश्या होती है, सौधर्म तथा ईशान में तेजोलेश्या, सनत्कुमार, माहेन्द्र और ब्रह्मलोक में पद्मलेश्या और शेष वैमानिकों में उत्तरोत्तर विशुद्ध शुक्ललेश्या होती है। जीवाभिगम की तीसरी प्रतिपत्ति के प्रथम उद्देशक में तथा प्रज्ञापनासूत्र के १७ सत्रह वें पद के प्रथम उद्देशक में कहा है-सौधर्म और ईशान देवों में कितनी लेश्याएं होती हैं ? गौतम ! एक तेजोलेश्या होती है । सनत्कुमार और माहेन्द्र में पालेश्या, ब्रह्मलोक में भी पालेश्या और शेष वैमानिकों में शुवललेश्या तथा अनुत्तरौपपातिकों में परमशुक्ललेश्या होती है ॥२२॥
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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