SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 522
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दीपिकानियुक्तिश्च अ०४ सू० २१ कल्पातीतवैमानिकदेवनिरूपणम् ५१५ काः खल्ल अवेयकाः सन्ति पञ्चानुत्तरौपपातिकाः पुनः विजय-वैजयन्ता-ऽपराजित-सर्वार्थसिद्धरूपाः सन्ति एतेभ्यः पञ्चभ्य उत्तरक्षेत्रे केषामपि देवानां निवासाभावात् न सन्ति विमानान्तराणि-उत्तरं येभ्यस्तान्यनुत्तराणि विमानानि यद्वा-शब्दानामनेकार्थत्वात् नास्त्युत्तरं विमानं यस्मात्तत् तदुपरि न कोऽपि देवलोकः ।। इमे पञ्चाऽनुत्तरौपपातिका देवा उच्यन्ते नवपञ्चभेदाच्चतुर्दशदेवाः कल्पातीता उच्यन्ते तत्र--पञ्चविमानविशेषाः सर्वोपरिवर्तमानाः सन्ति, अतएव तेऽनुत्तरा इति व्यपदिश्यन्ते अविद्यमानम्--उत्तरम् अन्यविमानादि येषां तेऽनुत्तराः विजयादिनामानः एव विमानविशेषाः सन्ति । तत्र-विजिताः अभिभूता निरस्ताः स्वर्गरूपाऽभ्युदयस्य विघ्नहेतवो यैस्ते त्रयो विजयवैजयन्तजयन्तनामानो देवाः सन्ति । ते खलु समस्तान् अम्युदयविनाशहेतुन् निरस्याऽमन्दानन्दरूपस्वर्गसुखसन्दोहरसमात्मसात्कृत्योपभुञ्जते, तैरेवाऽभ्युदयविधातहेतुभिर्न पराजिता भवन्ति ये तेऽपराजिता उच्यन्ते । सर्वेषु चाऽभ्युदयार्थेषु सिद्धाः सर्वार्थसिद्धाः उच्यन्ते, ते खलु सर्वार्थसिद्धाः स्वर्गाऽभ्युदयिकसुखप्रकर्षवर्तित्वात् सर्वप्रयोजनेषु-अव्याहतशक्तयो भवन्ति । ___ सर्वार्थ सिद्धाः सर्वार्थसिद्धाः, सर्वै रेवाऽतिशयशालिभिः शब्दरूपरसगन्धस्पर्शादिभिरतिरमणीऔर तीन उपरितन अर्थात् ऊपर के । जो विमान सर्वोत्कृष्ट हैं, जिनसे उत्तम अन्य कोई विमान नहीं हैं, वे अनुत्तर विमान कहलाते हैं। वे पाँच ये हैं-विजय वैजयन्त, जयन्त, अपराजित और सर्वार्थसिद्ध । नौ अवेयकवासी और पांच अनुत्तर विमानवासी , यों दोनों मिलकर कल्पातीत देव चौदह प्रकार के हैं। __ यह लोक पुरुषाकार है । लोक-पुरुष की ग्रीबा के स्थान पर जो विमान अवस्थित हैं, वे अवेयक कहे गये हैं उन विमानों में रहने वाले देव भी अवेयक कहलाते हैं । पांच अनुत्तर विमान सभो विमानों के ऊपर अवस्थित हैं, इस कारण उन्हे अनुत्तर कहा गया है । नहीं है उत्तर-श्रेष्ठ जिनसे, वे अनुत्तर । विजय वैजयन्त आदि देवों के नाम हैं, और देवों के नाम से विमानों के भी येही नाम हैं। ___ जिन्होंने स्वर्ग संबंधी अभ्युदय की प्राप्ती में विघ्न डालने वाले सभी कारणों को विजित कर लिया है, अर्थात् उन पर विजय प्राप्त कर लिया है, वे तीन देव विजय, वैजयन्त और जयन्त कहलाते हैं । वे देव अभ्युदय का विनाश करने वाले कारणों को दूर करके अमन्द (तीव्र) आनन्द रूप स्वर्गसुख के समूह को आत्मसात् करके भोगते हैं। इसी प्रकार स्वर्गीय सुख में बाधा डालने वाले कारणों से जो पराजित न हुए हों, वे अपराजित कहलाते हैं । जो देव अभ्युदय संबंधी समस्त अर्थों में सिद्ध (सफल) हों वे सर्वार्थसिद्ध कहलाते हैं। सर्वार्थसिद्ध देव स्वर्ग के सुखों की चरम सीमा पर पहुंच चुके हैं, अतएव समस्त प्रयोजनों में उनकी शक्ति अव्याहत होती है। अथवा जो देव सर्व अर्थों अर्थात् प्रयोजनों से सिद्ध हो वे सर्वार्थसिद्ध कहलाते हैं।
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy