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________________ ५०८ तत्वात ___ 'कप्पोववागा वेमाणिया बारसविहा, सोहम्म-ईसाण-सणंकुमार-माहिद-बंगलोयलंतय-महामुक्कसहस्सार-आणय-पाणय-आरणाच्चुयभेदा-इति. । कल्पोपपन्नकाः-कल्पेषु द्वादशदेवात्मकेषु उपपन्नाः सम्बद्धाः कल्पोपपन्नकाः वैमानिका वि विशेषेण दानशीलतपोभावैः पूर्वभवोपार्जितपुण्यपुञ्जशालिनः-प्राणिनः-स्वस्थितान् सुकृतिनो मानयन्ति आद्रियन्ते -आधारं ददति-इति विमानानि, तेषु विमानेषु भवाः वैमानिका देवा द्वादशविधाः सन्ति, सौधर्मे-शान-सनत्कुमार-माहेन्द्र-ब्रह्मलोक-लान्तक-महाशुक्र-सहस्रारा--ऽऽनत-प्राणतारणाच्युताः वक्ष्यमाणप्रकारेणावस्थिता सन्ति तथाहि यस्मिन् पटले सौधर्मनामा कल्पो दक्षिणदिशि वर्तते, तस्मिन् एव पटले उत्तरदिशि-ईशाननामा कल्पो समश्रेण्या स्थितः । समीपवर्ती एतौ द्वावपि प्रत्येकमर्द्धचन्द्राकारौ समश्रेण्या स्थितौ । एवम्-सनत्कुमारमाहेन्द्रदेवलोकावपि एवमेव समश्रेण्या स्थितौ। तदनेब्रह्म-लान्तक-महाशुक्रसहस्रारपर्यन्ता देवलोका एकैकस्योपर्युपरि वर्तन्ते तदने आनतप्राणतनामानौ द्वौ देवलोकौ, तदने आरणाच्युतौ च । एते चत्वारो देवलोका द्वौ द्वौ युगलरूपेण सौधर्मेशानदेवलोकवदेवार्द्धचन्द्राकारौ समश्रेण्या स्थिती इत्येवं द्वादशदेवलोकाः समवस्थिताः सन्ति ॥ सू० २०॥ ___ तत्त्वार्थनियुक्तिः--पूर्व तावत् सामान्यतः प्रतिपादितेषु चतुर्विधेषु भवनपति–वानव्यन्तरज्योतिष्क-वैमानिकदेवेषु विशेषतः क्रमशो भवनपति–वानव्यन्तरज्योतिष्कदेवानां प्ररूपणं विहि कल्पों में अर्थात् बारह देवलोकों में जो उत्पन्न हो. वे देव कल्पोपपन्नक कहलाते हैं । जो अपने अन्दर रहने वालों को जिन्होंने विशेष रूप से दान, शील तप और भावना का आसेवन करके पूर्वभव में पुण्यराशि प्राप्त की है उनको सुकृती-पुण्यात्मा मानते हैं उनका आदर करते है तथा उन्हें आधार प्रदान करते हैं उन्हें बिमान कहते हैं । बिमानों में उत्पन्न होने वाले देव वैमानिक कहेगये हैं और वे बारह प्रकार के हैं (१) सौधर्म (२) ईशान(३)सनत्कुमार (४) माहेन्द्र(५)ब्रह्मलोक (६) लान्तक (७)महाशुक्र (८) सहस्रार (९)आनत (१०) प्राणत (११) आरण और (१२)अच्युत । ये कल्प बक्ष्यमाण प्रकार से व्यवस्थित हैं, जैसे-ज्योतिश्चक्र के उपर असंख्यात करोड़ा करोड़ योजन जाने पर सौधर्म और ईशान देवलोक हैं, जिस प्रदेश में सौधर्म कल्प दक्षिणदिग्वर्ती है उसि प्रदेश के समीप उत्तर दिग्वत्र्ती ईशान कल्प भी है। ये दोनों ही कल्प प्रत्येक अर्द्धचन्द्राकार से समश्रेणिमें स्थित हैं । इनके ऊपरे असंख्यात करोडा करोड़ योजन जाने पर इसी प्रकार सनत्कुमार कल्प और माहेन्द्र कल्प ये दोनों भी अर्द्धचन्द्राकारसे समश्रेणिमे स्थित हैं । उनके ऊपर ब्रह्म, लान्तक, महाशुक्र, और सहनार, ये चार कल्प एक एक के प्रत्येक असंख्यात असंख्यात योजन जाने पर हैं और सहस्रार कल्प के ऊपरे आनत-प्राणत ये दो देवलोक तथा इन के ऊपर आरण और अच्युत ये चारों कल्प दो दो युगल रूप से सौधर्म और ईशान देवलोक की तरह अर्द्धचन्द्राकार से समश्रेणि में स्थित हैं ।२। इसप्रकार बारहों देवलोक व्यवस्थित हैं । सूत्र ॥२०॥ __ तत्त्वार्थनियुक्ति—पहले सामान्य से प्रतिपादित चार प्रकार के जो भवनपति वानव्यन्तर
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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