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________________ तत्वार्थसूत्रे AAAAAAAAAAAAAAAA स्वाभाविको भावश्चैतन्यादिकः पामिणामिको भवति,एवं औदयिकादिभाव सन्निपाते सति जायमानो भावः सन्निपातिको व्यपदिश्यते, तत्र औदयिकादयः पञ्चभावाः जीवस्य कर्मोदयाद्यपेक्षत्वात् नैमित्तिका उच्यन्ते, पारिणामिको भावस्तु चेतनत्वादिः स्वाभाविको व्यपदिश्यते कर्मोदयाद्यनपेक्षत्वात् स एष षड्विधो भावो याथायोगं भव्यस्याभव्यस्य वा जीवस्य स्वरूपमुच्यते, तत्र मिथ्यादृष्टीनाम् अभव्यानाञ्च न कदाचिदौपशमिकक्षायिकौ भवतः अपितु भव्यानामेव, पारिणामिकः पुनस्तदुभयानामेव, औदयिकोऽभव्यानाम् सान्निपातिकोऽपि उभयेषामेव, मिश्रस्तु तदभयेषामपि भवतीतिभावः क्षयोपशमाभ्यां निर्वृत्तो मिश्रो भावो दरविध्याच्छन्नवह्निवत् उदयावलिकाप्रविष्टस्य कर्मणः क्षीणत्वात् तच्छेषस्य चकर्मणोऽनुद्रेकक्षयावस्थत्वात् एवंविधामुभयोमवस्थामाश्रित्य सम्पद्यते, अथौपशामिकभावापेक्षयाक्षायोपशमिकभावस्य मिश्रस्य न कोऽपि भेदः औपशमिकेऽपि भावे उदितस्य उद्यावलिकाप्रविष्टस्य कर्मणः अनुदितत्वात् अनुदितस्य चोपशान्तत्वादितिचेदत्रोच्यते क्षयोपशमे खलु कर्मण उदयोऽपितिष्ठति तत्र प्रदेशतया कर्मणो वेदनस्यानुज्ञातत्वात् किन्तु नत्वसौ विघाताय भवतीति, अनुभावं पुनर्न तत्र वेदयते इति भावः उपशमे पुनः प्रदेशकर्मापि नानुभूयते, मनागपि नोदयस्तस्येति विशेषः । यद्यपि जो भाव कर्म के उपशम आदि की अपेक्षा नहीं रखता किन्तु स्वभाव से ही होता है, वह चैतन्य आदि पारिणामिक भाव कहलाता है। इसी प्रकार औदयिक आदि भावों के सन्निपात से अर्थात् मेल से उत्पन्न होने वाले भाव को सान्निपातिक भाव कहते हैं। इनमें औदयिक आदि पाँच भाव कर्मोदय आदि की अपेक्षा से होने के कारण नैमित्तिक हैं, किन्तु चेतनत्व आदिरूप पारिणामिक भाव स्वाभाविक होता है, उसमें कर्म के उदय आदि की अपेक्षा नहीं रहती । यही छह प्रकार का भाव भव्य या अभव्य जीव का स्वरूप कहलाता है । इन छह प्रकार के भावों में से मिथ्यादृष्टि और अभव्य जीवों को औपशमिक और क्षायिक भाव कदापि नहीं होते । यह दोनों भाव भव्य जीवों को ही प्राप्त होते हैं । पारिणामिक, औदयिक, क्षायोपशमिक और सान्निपातिक भाव भव्यों और अभव्यों-दोनों में ही पाया जाता है। मिश्रभाव क्षय और उपशम से उत्पन्न होता है वह कुछ-कुछ बुझी हुई और कुछ-कुछ दबी हुई अग्नि के समान है । उदयावलिका में प्रविष्ट कर्म का क्षय हो जाने पर तथा क्षेत्र कर्म का अनुदेक होने पर-इस प्रकार दोनों की अवस्था में क्षयोपशमिक(मिश्र) भाव की उत्पत्ति होती है । शंका-औपशमिकभाव और क्षायोपमिक भाव में कुछ भी भेद नहीं है, क्योंकि औपशमिक भाव में भी उदितउदयावलिका में प्रविष्ट कर्म का उदय नहीं होता और अनुदित कर्म उपशान्त रहता है। समाधान-क्षयोपशमभाव में कर्म का उदय भी रहता है । वहाँ प्रदेश रूप से कर्म का वेदन स्वीकार किया गया है, किन्तु वह विघातकारी नहीं होता, अर्थात् वहाँ विपाक का वेदन महीं होता है । उपशम-अवस्था में कर्म का प्रदेशोदय भी नहीं होता । यही इन दो में अन्तर है।
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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