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________________ MAAMI www तत्त्वार्यसूत्रे प्रायो वसन्ति नानावासेषु , तानि खलु भवनानि बहि वृत्तानि अन्तश्चतुरस्रणि अधस्तात् पुष्करकर्णिका संस्थानानि भवन्ति ते खल-आवासा भवनानि च क भवन्तीति जिज्ञासायामाह ___ आवासास्तावत्-महामन्दरस्य योजनसहस्रमात्रावगाहिनो दक्षिणस्यां दिशि तिर्यग्बह्वीषु योजनलक्षकोटी कोटीषु भवति भवनानि तु-दक्षिणार्धाधिपतीनां चमरादीनाम्, उत्तरार्धाधिपतिनाञ्च बलिप्रभृतीनां यथायथमसुरादीनां सन्ति ! वस्तुतस्तु-रत्नप्रभाया अशीतिसहस्राधिकलक्षयोजनबाह ल्याया उपरि--अधश्चकैक सहस्रयोजनं परित्यज्य मध्येऽष्टसप्ततिसहस्राधिकलक्षयोजनेषु कुसुमप्रकरवत् प्रकीर्णा आवासा भवन्ति । भवनानि तु–रत्नप्रभाया बाहल्यार्धरूपाणि नवतिसहस्रयोजनानि-अधोऽवग्राह्य मध्ये वर्तन्ते एतेषाञ्चा-ऽसुरकुमारादीनां नामकर्मनियमात् भवनप्रत्ययाश्च स्वजातिविशेषनियता विक्रिया भवन्ति । तत्र-भवहेतुका स्ताबद् जन्मतपोऽनुष्ठाननिरपेक्षा विक्रिया सम्बध्यन्ते, नामकर्मनियमाच्च स्वजा तिविशेषनियता विकिया भवन्तीति भावः । अङ्गोपाङ्गनामकर्मोदयात् निर्माणनामकर्मोदयाद् वर्ण-रस-गन्ध-स्पर्शादिनामकर्मोदयाच्च प्रतिजातिविशेषकारिण्यः खलु -विक्रियाः सम्भवन्ति । तत्रा-ऽसुरकुमाराःखल -गम्भीराशयाःघनशरीराः-श्रीमन्तः सर्वाङ्गोपाङ्गसुन्दराः-पाण्डुरवर्णाः--महाकायाः-रत्नोत्कट--मुकुटभास्वराःरक्षाबन्धनलाञ्छिता भवन्ति । सर्वञ्चैतत् खलु-एतेषामसुरकुमाराणां नामकर्मोदयजनितं भवति-१। नागकुमार आदि प्रायः भवनों में ही रहते हैं और नाना वासों में रहते हैं। वे भवन बाहर गोलाकार और भीतर चौकोर होते हैं। नीचे से कमल की कर्णिका के समान होते हैं । वे आवास और भवन कहाँ होते हैं। ऐसी जिज्ञासा होने पर कहते हैं एक हजार योजन अवगाह वाले महा मन्दर पर्वत से दक्षिण दिशा में तिनें बहुत सी कोड़ाकोड़ी लाख योजनों में आवास होते हैं । भवन दक्षिणार्ध के अधिपति चमरइन्द्र आदि के और उत्तराध के अधिपति वलि वगैरह असुरों के यथायोग्य होते हैं । वास्तव में तो एक लाख अस्सी हजार योजन मोटी रत्नप्रभा पृथ्वी के एक-एक हजार ऊपरी और नीचले भाग को छोड़ कर एक लाख अठहत्तर हजार योजनों में फूलों के समान फैले हुए आवास होते हैं । भवन समतल भूमि भाग से चालीस हजार योजन नीचे जाने पर प्रारम्भ होते हैं। इन असुर कुमार आदि की नामकर्म के नियम के अनुसार और भवनों के कारण से अपनी- अपनी जाति में नियतविक्रिया होती है। अंगोपांग नामकर्म के उदय से, निर्माणनाम कर्म के उदय से प्रत्येक जाति में अलग अलग विक्रियाएँ होती हैं। असुर कुमार गंभीर आशय वाले सघन शरीर वाले, श्रीमन्त, सुन्दर समस्त अंगोपांगों वाले, पांडुर वर्ण, स्थूल शरीर वाले, रत्नजटित मुकुट से देदीप्यमान और राखडी के चिह्न से युक्त होते हैं । असुर कुमारों को यह सब नामकर्म के उदय से प्राप्त होता है ।
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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