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________________ दीपिकानियुक्तिश्च अ० ४ सू. १५ पञ्चप्रतधारिणां भावनान्तरनिरूपणम् ४८७ इत्येवं तावत् पुनःपुनरालोच्यमानः खलु जगत्स्वभावः संसारतो भीरूत्वलक्षणाय संवेगाय सम्पद्यते,अज्ञानहिंसादिचोष्टितानां संसारानन्तफलदोषदर्शनात् तदुच्छेदार्थमहर्निशं संवेगमेव भावयतीति भावः । अचेतनानामपि नित्यानित्यमूर्तामूर्तरूपरसगन्धस्पर्शशब्दसंस्थानादिपरिणामशुभाशुभकल्पनानामनायसन्तानकस्वभावत्वमनुभवन् अरक्तमूढद्विष्टो जगद् अन्यायन्यायचेष्टितानि भीति युक्तानि अभयभूतानि च भावयन् संवेगवान् भवतीति भावः । एवम्-कायस्वभावस्तावद् अनित्यताजन्मप्रभृतिविनश्वरता बालकुमारयौवनप्रौढस्थविरावस्था पूर्वपूर्वावस्थोपमर्दैनो-त्तरोत्तरावस्थास्वरूपं प्रतिपद्यन्ते, तस्मादायुषः परिसमाप्तिपर्यन्तं शरीरस्य परिणामानित्यत्वं भावयेत् तदनन्तरं क्रोधेन वह्निना वा श्वानगृह्मादिशकुन्तसम्पातेन वा वाता-तपशोषणेन वा विघटितः शरीराकारपरिणत पुग्दलप्रबन्धो घणुकादिस्कन्धभेदेन परमाणुपर्यवसानेन विभक्तत्वादनित्य उच्यते । बहुकालमपि चैष कायः कुङ्कुमा-ऽगुरु-कपुर-कस्तूरिका-ऽनुलेपनमिष्टान्न-पान-वस्त्राऽऽच्छादनादिना उपलालितः पालितश्चा-ऽकाण्ड एव विध्वंसमासादयति इत्येवं भावयतश्च शरीरे निर्ममत्वं इस प्रकार बार-बार जगत् के स्वभाव का चिन्तन किया जाय उससे संवेग की प्राप्ति होती है । तात्पर्य यह है कि अज्ञान एवं हिंसा आदि कृत्यों का अनन्त संसार रूप फल-दोष दिखाई देने से उनके त्याग के लिए रात-दिन संवेग की ही भावना होती है । संवेगवान् व्यक्ति जब यह अनुभव करता है कि अचेतन पदार्थों की भी नित्य-अनित्य, मूर्त-अमूर्त, रूप, रस गंध, स्पर्श, शब्द, संस्थान आदि परिणाम की शुभ-अशुभ परिणति होती है। राग-द्वेष से रहित होकर अन्यायपूर्ण चेष्टाएँ भययुक्त हैं और न्यायसंगत चेष्टाएँ अभय रूप हैं, इस प्रकार की भावना करता हुआ संवेगवान् होता है। काम के स्वभाव का विचार इस प्रकार करना चाहिए-यह शरीर अनित्य है। जन्मकाल से लगाकर विनाशशील हैं । इसमें कमी बाल्यावस्था, कभी कुमारावस्था, कभी यौवनावस्था, कभी प्रौढावस्था और कभी वृद्धावस्था उत्पन्न होती है ! पूर्व-पूर्व अवस्था को विनष्ट करके आगेआगे की अवस्थाएँ उत्पन्न होती हैं ! इस प्रकार यह शरीर आयु की समाप्ति पर्यन्त अनित्य है ! तत्पश्चात् क्रोध से, आग से, श्वान या गीध आदि पक्षियों के निमित्त से, हवा और धूप से सूख कर शरीर के आकार में परिणत हुए पुद्गलस्कंध बिखर जाते हैं । बिखरते-बिखरते द्वचणुक आदि रूप धारण करते हुए अन्त में परमाणुओं के रूप में विभक्त हो जाते हैं इस प्रकार यह शरीर अनित्य है! दीर्घ काल तक इस शरीर का कुंकुम, अगर, कपूर' कस्तूरी, आदि का लेपन करके, मिष्टान्न, पान, वस्त्राच्छादन आदि से लालन-पालन किया जाता है, फिर भी असमय में ही विध्वंस को प्राप्त हो जाता है ।
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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