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________________ दीपिकानियुक्तिश्च अ०४ सू० १५ पञ्चवतधारिणां भावनान्तरनिरूपणम् ४८५ तत्र-जगत्स्वभावस्तु-प्रियवस्तुविप्रयोग-विप्रियवस्तुसंप्राप्तिसमभीप्सिताऽलाभदारिद्रयदौर्भाग्यदौर्मनस्यवधबन्धनाभियोगाऽसमाधिदुःखसंवेदनलक्षणो वर्तते । एवं संसारे खलु संसारिणां सर्वस्थानानि अशाश्वतानि भवन्ति, धर्माधर्मादिद्रव्याणाञ्च परिणामित्वात् अनन्तपर्यायरूपेण गमनात्, तेष्वपि-धर्मादिषद्रव्येषु परिणामानित्यतां भावयेत् । कायस्वभावस्तावत्-मातापित्रोः रजः शुक्रमेकीभूतं सद् गर्मजन्मनां प्राणिनां शरीरतया परिणतं भवति, इत्यादिलक्षणः, संमूर्च्छनोपपातजन्मनां प्राणिनां पुनरुत्पत्तिदेशावगाढस्कन्धादाननिर्माणानि शरीराणि नानाकाराणि अशुभपरिणामवन्ति परिशटनोपचयत्वात् विनश्वराणि भवन्ति इत्येवं लक्षणश्च वोध्यः । परमार्थतस्तु-जीवाजीवद्रव्याणि जगत् पदेनोच्यते, तेषां पुद्गलद्रव्यादीनां स्वभावाः अनादिसादियुक्ताः प्रादुर्भावतिरोभावस्थित्यन्यतानुग्रहविनाशात्मका भवन्ति । तथाहि-जीवस्यासंख्येयद्वेष आदि चौदह प्रकार की आन्तरिक उपधि में आसक्ति-ममता न होना । तात्पर्य यह है कि निर्लोभतारूप आत्मा का परिणाम निर्वेद कहलाता है । प्रिय पदार्थ का वियोग हो जाना, अप्रिय का संयोग होना इष्ट की प्राप्ति न होना, दरिद्रता होना, दुर्भाग्य होना, दुर्मनस्कता होना, वध, बन्धन, अभियोग, असमाधि और दुःख का अनुभव होना, ऐसा जगत् का स्वभाव है। संसार के सभी स्थान अशाश्वत हैं । कोई भी जीव या अजीव का ऐसा पर्याय नहीं जो स्थायी हो । धर्म और अधर्म आदि सभी द्रव्य परिणमनशील हैं । उनमें निरन्तर परिवर्तन होते रहते हैं । अतीतकाल में एक-एक द्रव्य की अनन्त अवस्थाएँ हो चुकी हैं और यह क्रम एक क्षण भी कभी रूकता नहीं है । इस प्रकार धर्म आदि छहो द्रव्यों में परिणति नित्यता की भावना करे, अर्थात ऐसा विचार करे कि आत्मद्रव्य अजर अमर अविनाशी और नित्य होने पर पर्यायों की उपेक्षा से क्षण क्षण में रूपान्तरित होता रहता है । कभी देव कभी मनुष्य कभी तिर्यच और नारक पर्याय को धारण करता है और वहाँ विविध प्रकार की आधि-व्याधियों को भोगता है। इसी प्रकार अन्य द्रव्यों की नित्यानित्यता का भी चिन्तन करे । ___ काय के स्वभाव का इस प्रकार विचार करे-माता और पिता का रज और वीर्य जब मिश्रित होता है, तो वह गर्भज प्राणियों के रूप में परिणत हो जाता है ! संमूर्छिम और उपपात जन्म वाले जीवों के शरीर उत्पत्ति क्षेत्र में रहे हुए पुद्गलस्कंधों को ग्रहण करने से निर्मितहोते हैं । वे शरीर विविध आकारों के और अशुभ परिणमन वाले होते हैं। उनमें अपचय और उपचय अर्थात् बिछुड़ना और मिलना होता रहता है और वे सब विनश्वर होते हैं । वास्तव में तो जगत् शब्द से जीवऔर अजीव द्रव्यों का ग्रहण होता है । उन पुद्गल आदि द्रव्यों के स्वभाव अनादि-सादि युक्त होते हैं। प्रादुर्भाव (प्रगट) होना और तिरोभाव (छिपना) होना फिर भी द्रव्य रूप से स्थिति रहना, अन्य का अनुग्रह करना और पर्याय से विनष्ट होना, यह सब द्रव्यों का स्वभाव है ।
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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