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________________ ४२ तत्त्वार्थसूत्रे कारणवशादनुद्भवरूप उपशम उच्यते, यथा कतकादि (निबलीति भाषाप्रसिद्धः) द्रव्यसंयोगाद् जले कर्दमस्योपशमोऽधस्तले स्थितिः भवति, क्षयः पुनः कर्मण आत्यन्तिकी निवृत्तिरुच्यते यथा काचादिपात्रस्थे जलदस्थे वा जले पङ्कस्यात्यन्त वो भवति, एतदुभयात्मको मिश्रः क्षयोपशमो भण्यते, यथा कूपस्थे जले पङ्कस्य क्षीणाक्षीणवृत्तिर्भवति, द्रव्यात्मलाभमात्र हेतुकः परिणामो भवति तथा औदयिक कर्मण उपशमः भस्मपटलाच्छन्नाग्निवत् कर्मणः अनुदयावस्था प्रयोजनमस्य भावस्येत्यौपशमिको भावो जीवस्यावस्था विशेषः एवं कर्मणः क्षयेण निवृत्तो भावः क्षायिको भावः एवं कर्मणः क्षयोपशमाभ्यां निर्वृतः भावः क्षायोपशमिको भावः, एवं कर्मणः परिणाम एव द्रव्यभाव प्राणावस्थालक्षणः पारिणामिको भावः न तु परिणामः प्रयोजनमस्य परिणामेन वा निर्वृत्त: पारिणामिक इति व्युत्पत्तिः तथा सति जीवत्व भव्याभव्यत्वादेरादिमत्वापत्तिः स्यात्, यदि परिणामः प्रयोजनमस्येति व्युत्पत्त्या पारिणामिको जीव इत्युच्यते तदा ततः पूर्वावस्थायां नाभूज्जीव इति रीत्या तस्यादिमत्त्व प्रसङ्गः एवं निवृत्त्यर्थेऽपि प्रागनिवृत्तौ निर्व]त तथा चोक्तदोषः, एवं भव्याभव्यत्वादिष्वपि योजनीयम् तथा चानादिप्रसिद्धः पारिणामिको भावः सकल पर्यायराशेः प्रहृतामभिमुखता . द्रव्यादि का निमित्त पाकर कर्मों के फल की प्राप्ति होना उदय कहलाता है, जैसे जल में पंक का उभार होना । कर्म के उदय से उत्पन्न होने वाला भाव औदयिक भाव कहा गया है । कर्म की शक्ति का आत्मा में कारणवश उभार न होना-कर्म की शक्ति का दबा रहना उपशम है, जैसे कतक ( फिटकड़ी ) आदि द्रव्यों के संयोग से जल में कचरा नीचे बैठ जाता है । कर्मों की आत्यन्तिक निवृत्ति को क्षय कहते हैं, क्षय और उपशम का मिश्रण क्षयोपशम कहलाता है, जैसे कूप में स्थित जल में पंक की कुछ क्षीणता और कुछ अक्षीणता होती है । द्रव्य का स्वाभाविक रूप परिणाम कहलाता है। कर्म के विपाक का प्रकट होना उदय है और उदय से उत्पन्न होने वाला भाव औदयिक कहा गया है । जैसे अग्नि को राख से आच्छादित कर दिया जाता है तो उसकी शक्ति प्रकट नहीं होती. उसी प्रकार कर्म की शक्ति का दबा रहना उपशम कहलाता है और उपशम से उत्पन्न होने वाला भाव औपशमिकभाव है। यह भी जीव की एक अवस्था है। इस प्रकार कर्म के क्षय से उत्पन्न होने वाला भाव क्षायिक, क्षय और उपशम से उत्पन्न होने वाला भाव क्षायोपशमिक और आत्मा का परिणाम ही पारिणामिक भाव है,। परिणाम जिसका प्रयोजक हो अथवा परिणाम से जो उत्पन्न हो, वह पारिणामिक भाव है, ऐसा नहीं समझना चाहिए । वास्तव में पारिणामिक भाव वही कहलाता है जो किसी भी कर्म के उदय क्षय, क्षयोयशम या उपशम की अपेक्षा न रखता हो, बल्कि स्वभावतः हो । पारिणामिक भाव कर्म के निमित्त से माना जाय तो जीवत्व, भव्यत्व और अभव्यत्व सम्यद्गर्शन आदि की भाँति सादि हो जाएँगे। परिणाम जिसका प्रयोजन हो वह पारिणामिक जीव है, ऐसी व्युत्पत्ति मानी जाय तो उससे पहले की अवस्था में जीव का अभाव होने से उसकी आदि हो जाएगी। इसी प्रकार परिणाम से
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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