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________________ दोपिकानिर्युक्तिश्च अ० ४ सू. १४ सर्वभूतादिषु मैत्र्यादि भावनानिरूपणम् ४८१ सम्यक्त्वज्ञानचारित्र तत्र - प्रमोदस्तावत् वन्दनस्तवनप्रसंशनवैयावृत्यकरणादिभिः तपोऽधिकेषु मुनिवरेषु स्व- पर - तदुभयकृत सम्मानजन्यः सर्वेन्द्रियाभियक्त आनन्दातिरेक उच्यते । तत्र - सम्यक्त्वं तावत् तत्त्वार्थश्रद्धानस्वरूपं बोध्यम्, ज्ञानञ्चे-ष्टानिष्टप्रवृत्तिनिवृत्तिविषयक बोधरूपम् चारित्रञ्च - मूलोत्तरगुणभेदम् तपश्च बाह्याभ्यन्तरभेदेन द्विविधमवसेयम् । एतैश्चो–पर्युक्तलक्षणैः सम्यक्त्वादिभिः श्रावकापेक्षया विशिष्ठेषु श्रमणेषु स्वेन परेण तदुभाभ्यां वा कृतवन्दनादिना मुनिजनगुणोत्कीर्तनसमये एकतान श्रवणसमुत्फुल्लनयनाविर्भूतरोमाञ्च कञ्चुकितगात्रयष्ट्यादिलिङ्गेन प्रकटितो मनःप्रहर्षः प्रमोदो व्यपदिश्यते तं भावयेदिति । एवम्क्लेशमनुभवत्सु क्लिश्यमानेषु दीनेषु अनाथबालवृद्धादिषु कारुण्यं भावयेत् तत्र - कारुण्यं खलु अनुकम्पारूपमुच्यते दीनोपरि- अनुग्रहः दयादृष्टिः, दीनत्वञ्च - मानसिकशारीरिकदुःखैरभिभूतत्वं बोध्यम् । तत्र—- करुणाक्षेत्रेषु सत्वेषु मिथ्यादर्शनानन्तानुबन्ध्यादिरूपमहामोहाभिभूतेषु मतिश्रुत विभङ्गज्ञानव्याप्तेषु इष्टानिष्टप्राप्तिपरिहारवर्जितेषु अनेकदुःखपीड़ितेषु दीनकृपणा - Sनाथबालवृद्धादिषु अविजो जीव सम्यक्त्व आदि गुणों में अपने से बढ़ कर हैं, विशिष्ट व्रती हैं, उन पर प्रमोद अर्थात् हर्ष की अधिकता की भावना करनी चाहिए । सम्यक्त्व, ज्ञान, चारित्र या तप की अपेक्षा से जो अपने से अधिक हैं, उनको वन्दन करना; उनका स्तवन करना, उनकी प्रशंसा करना, वैयावृत्य आदि करना; सन्मान करना और समस्त इन्द्रियों से आनंद के अतिरेक को प्रकट करना प्रमोद कहलाता हैं । इनमें तत्त्वार्थ के श्रद्धान को सम्यक्त्व कहते हैं । इष्ट में प्रवृत्ति और अनिष्ट से निवृत्ति विषयक बोध ज्ञान कहलाता है । मूलगुणों को और उत्तर गुणों को चारित्र कहते हैं । बाह्य और आभ्यन्तर के भेद से दो प्रकार का तप है । यह सम्यक्त्व आदि श्रावकों की अपेक्षा श्रमणों में विशिष्ट रूप में पाये जाते हैं । अतएव उन्हें देखकर वन्दन आदि करना, उनके गुणों का उत्कीर्त्तन करना, एकाग्र होकर उनके प्रवचन को सुनना, नयनों का खिल उठना, हर्ष से रोमांच उत्पन्न हो जाना, इत्यादि चिह्नों से प्रकट होने वाला हर्ष प्रमोद कहलाता है । उसकी भावना करनी चाहिए । इसी प्रकार जो जीव क्लेश के पात्र बने हुए हैं, दीन हैं, अनाथ हैं, बाल या वृद्ध हैं, उनके ऊपर करुणा भाव धारण करना चाहिए । करुणा का अर्थ है अनुकम्पा । दीनों पर अनुग्रह अर्थात् दया की दृष्टि रखनी चाहिए । जो प्राणी मानसिक अथवा शारीरिक दुःखों से पीडित हैं, उन्हें दीन कहते हैं । जो करुणा के पात्र हैं, मिथ्यादर्शन एवं अनन्तानुबन्धी आदि महामोह से गुस्त हैं, कुमति कुश्रुत एवं विभंग, ज्ञान से युक्त हैं, जो इष्ट प्राप्ति और अनिष्ट परिहार से रहित हैं, अनेक दुःखों से पीडित हैं, दीन, दरिद्र, अनाथ, बाल वृद्ध हैं, उनके प्रति अविच्छिन्न करुणाभावना धारण ६१
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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