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________________ दीपिकानियुक्तिश्च अ० ४ सू. १३ सर्वव्रतसामान्यभावनिरूपणम् ४७५ भाषणादि बहुमहदुःस्वमुपजायते, एवं सर्वेषामपि प्राणिनामसत्यभाषणाऽभ्याख्यानेना-ऽभ्याख्यानहेतुकं महद्दुःख मस्मिन् लोके भवति। परलोके तु-असत्यभाषणपरो यत्र जन्म मासादयति, तत्र-तत्र च तथाविधैरेवा-ऽसत्यभाषणाभ्याख्यानै रमियुज्यमानः सदा महदुःखमनुभवतीति भावयन् अनृतभाषणा द्विरतो भवति । एवं यथा तस्करादिभि ममेष्ट द्रव्यापहरेण भवति भूतपूर्वं च तथा सर्वप्राणिना मपि द्रव्यापहारे भवतीत्यात्मानुभवेन भावयन्नदत्तादानाद् विरतो भवति । एवं मैथुनस्यापि राग-द्वेषमूलकत्वाद् हिंसादि वदेव दुःखजनकत्वेन-लोकसमाजगर्हितत्वेन च दुःखजनकत्वं भावयन् तस्माद्विरतो भवति । अथ स्त्रीणामुपभोगे यतोऽधरपानादि संस्पर्शजनितसुखविशेषाऽनुभव एव लौकिकशास्त्रकारिभिः । 'सडिण्डिम मुद्रुष्यते-संशब्द्यते तदनुयायिभिश्च रागानुसारिभिर्वाद्यैरिव तत्किमिति तस्य दुःखात्मकत्वमितिचेद्-? अत्रोच्यते-... यथा खल-क्षय-कुष्ठादयो व्याधिविशेषा भैषज्योपयोगेन-पथ्या-ऽऽसेवनेन चांशतःसमुच्छिद्यमाना अपि पुनः पुनरुद्भवन्ति, एवं-कामदेवव्याधयोऽपि न खलु मैथुनसेवनेन सर्वथा शान्ता अभवन्-न वा भवन्ति-भविष्यन्ति च । तथाचोक्तम्-.. "न जातु कामः कामनामुपभोगेन शाम्यति । हविषा कृष्णवर्मेव भूय एवाऽभिवर्धते ॥ १॥ इति तस्मात्-कमेणां क्षयोपशमादयः क्षेत्र-काल-द्रव्य-भावाऽपेक्षिणो नात्यन्तिकं सुखमुपजन इसी प्रकार जैसे असत्यभाषण से मुझे महान् दुःख उत्पन्न होता है । उसी प्रकार समस्त प्राणियों को असत्यभाषण से तथा मिथ्यादोषारोपण आदि से घोर कष्ट पहुँचता है। इस तरह का विचार इसी लोक को लेकर करना चाहिए । .. असत्यभाषी पुरुष मृत्यु के पश्चात् जहाँ जन्म लेता है, वहाँ उसे असत्य भाषण, मिथ्या दोषारोपण आदि का उसी प्रकार सामना करना पड़ता है जैसा उसने पहले स्वयं किया था । इससे उसे महान् दुःख का अनुभव करना पड़ता है । - ऐसी भावना करने वाला मिथ्या भाषण से निवृत्त हो जाता है। जैसे चोर-डाकुओं के द्वारा पहले मेरे धन के अपहरण से मुझे दुःख हुआ था, उसी प्रकार अन्य जीवों को भी धन के अपहरण से दुःख होता है', इस प्रकार आत्मानुभव के आधार पर जो भावना करता है, वह अदत्तादान से निवृत्त हो जाता है । इसी प्रकार से जो व्यक्ति मैथुन को राग-द्वेष मूलक होने, हिंसा आदि के समान दुःखजनक होने तथा लोक एवं समाज में गर्हित होने के कारण दुःखजनक होने की भावना करता है, वह मैथुन से विमुख हो जाता है। द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा रखने वाले कर्मों के क्षयोपशम मादि
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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