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________________ मितिश्च अ० ४ सू. १३ सवव्रतसामान्यनिरूपणम् ॥ एवमममसेक्निोऽपि कामिनीविलासविशेषविभ्रमोद्भान्सस्वान्ताः विप्रक्रीनिवासमा छनियने प्रवर्तितेन्द्रियाः मनोज्ञेषु शब्दरसगन्धस्पर्शेषु अनुरक्ताः सन्तो मदोन्मत्तगजेन्डा इक निरकुल्य इष्टानिष्ट प्रवृत्तिनिवृत्तिविचाररहिताः कुत्रापि न शर्म लभते, मोहाभिभूताश्च कतैव्याकर्तश्च विवेकरहितत्वात् सर्वमपि कर्म शोभनमेव मन्यमानाः कर्तुं प्रवर्तन्ते ग्रहाविष्टपुरुषवत् ।। परस्त्रीगमनप्रयुक्ताश्वेहलोके वैरानुबन्धलिङ्गच्छेदनबधबन्धनसर्वस्वापहरणादीन् अपायान् प्रतिलमते, प्रेत्यच नारकादिगतिं प्राप्नुवन्ति, तस्मान्मैथुनतो व्युपरमः श्रेयान् इति भावयन् ततो व्युमरतो भवति । एवं-परिग्रहवानपि जनस्तस्करादीनामाक्रमणीयो भवति, यथा-कश्चित्पक्षी मांसपेशीकरः श्येनादिपक्षिमिः आममांसभक्षिभिरभिभवनीयो भवति । तथैव-परिग्रहीजनोऽपि तस्करादिभिरभिभूयते, तदपार्जनरक्षणक्षयप्रयुक्ताश्च · दुःस्वपरिश्रमशोकादिदोषान् प्रप्तिलभते, परीग्रहशीलस्य शुष्कन्धनैरग्नेरिव द्रव्यादिभिस्तृतिर्न भवति, लोभाषिभ__जैसे प्राणातिपात, असत्य भाषण और चौर्य करने वालों को बहुत से अनर्थों का सामना करना पड़ता है, उसी प्रकार अब्रह्म का सेवन करने वालों को भी नाना प्रकार के दुःख भोगने पड़ते हैं । कामिनी के हाव भाव को देख कर जिनका चित्त उद्भ्रान्त हो माता है, जिनकी इन्द्रियाँ काबू में नहीं रहतीं और तुच्छ विषयों में प्रवृत्त होती हैं, जो मनोज्ञ शब्द रूप गंध रस और स्पर्श में, जो राग के कारण हैं, अनुरक्त होकर मदमाते हाथी के समान निरंकुश हो जाते हैं, इष्ट प्रवृत्ति और अभिष्टनिवृत्ति के विचार से शून्य हैं, उन्हें कहीं पर भी सुख-शान्ति प्राप्त नहीं होती। वे मोह से ग्रस्त होकर कृत्य-अकृत्य के विवेक से रहित होने के कारण अपने प्रत्येक कार्य को ठीक समझते हैं। उनकी दशा ऐसी हो जाती है जैसे उन्हें भूत लगा हो । ___जो पुरुष परस्त्री लम्पट होते हैं, वे इस लोक में बहुतों से वैर बाँधते हैं और इन्द्रियछेदन, बध बन्धन, सर्वस्व हरण आदि अनर्थों को प्राप्त करते हैं । परलोक में नरक आदि गति में जाकर दुःख भोगते हैं। इस कारण मैथुन से निवृत्त हो जाना ही श्रेयस्कर है; इस प्रकार की भावना करने बाला पुरुष मैथुन से विरक्त हो जाता है। इसी प्रकार परग्रहवान् जन पर चोर-लुटेरे आक्रमण करते हैं। जैसे कोई पक्षी मांस का खंड चोंच में दबा कर उड़ रहा हो तो मांस भक्षण करने वाले श्येन आदि दूसरे पक्षी उस पर झपटते हैं, उसी प्रकार परिग्रही पुरुष को तस्कर आदि सताते है ! उन्हें प्रथम तो धनादि परिग्रह के उपार्जन के लिए दुःख सहन करना पड़ता है, फिर उसकी रक्षा के लिए परिश्रम करना पड़ता है; इतना सब करने पर भी अन्त में जब उसका विनाश हो जाता है तो घोर-शोक का अनुभव करना पड़ता है। जैसे सूखे ईधन से अग्नि की तृप्ति नहीं होती, उसी प्रकार लालची परिग्रही को धन
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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