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________________ दीपिकानियुक्तिश्च अ० ४ सू. १२ पञ्चविंशतिर्भावनानिरूपणम् ४६५ पातुं समर्थो भवतीति भावः ।। - अथाऽनृतविरतिलक्षणसत्यवचनस्य दार्थ पूर्वोक्तपञ्चभावनासु प्रथमं तावद् अनुवीचिभाषणमुच्यते, अनुवीचिशब्दो देशीय आलोचनार्थकः । तथाच-समीक्ष्य-आलोच्य वचनप्रवर्तनम्अनुवीचिभाषणं बोध्यम् , अनालोचितवक्ता कदाचिन्मृषाऽपि ब्रूयात् , ततश्चात्मनो लाघव वैरपीडाः खलु-ऐहिकानि फलानि स्युः, परप्राणोपघातम्वाऽवश्यंभावी , अतः साक्ष्योदाहरणेनात्मानं भावयन् न मृषाभाषणजनितपापेन सम्पृक्तो भवति--१ क्रोधस्य-कषायविशेषस्य मोहकर्मोदयनिष्पन्नप्रद्वेषप्रायस्याऽप्रीतिलक्षणस्य प्रत्याख्यानं-निवृत्तिरनुवृत्तिा, तेन-क्रोधप्रत्याख्यानेन । सततमात्मानं भावयेत्- तथा भावयन् वासयंश्च सत्यादि न व्यभिचरतीति-२ ॥ एवं-लोभप्रत्याख्यानं तावत्-तृष्णालक्षणस्य लोभस्य प्रत्याख्यानं परित्यागः तेना ऽप्यात्मानं भावयन् न वितथभाषी भवति –३ एवं-भयशीलस्य भीरुत्वस्य प्रत्याख्यानेनाऽपि-आत्मानं भावयन् नाऽनृतं कदाचिद् वदति, भयशीलो जनः कदाचिद् वितथमपि भाषते । चौरोऽथ पिशाचो वा मया रात्रौ दृष्ट इति, तस्माद्-निर्भयवासनाध्यानमात्मनि भावयेत् -४ नाओं को पुनः पुनः भाने वाला अहिंसाव्रत की रक्षा करने में समर्थ होता है ।। असत्यविरमण व्रत को दृढ़ता के लिए कही हुई पाँच भावनाओं में से पहले अनुवीचिभाषण का कथन करते हैं । (१) अनुवीचिभाषण-यहाँ 'अनुवीचि' शब्द देश्य है और उसका अर्थ है-आलोचना तात्पर्य यह हुआ कि सोच-समझ कर वचनों का प्रयोग करना अनुवीचि भाषण करना है। बिना सोचे-समझे बोलने वाला वक्ता कदाचित् मिथ्या (असत्य) भाषण भी कर बैठता है। उससे अपनी लघुता होती है तथा वैर, पीडा आदि इह लोक संबंधी अनर्थ उत्पन्न होते हैं। उससे दूसरे के प्राणों का घात भी अवश्य होता है। अतएव अनुबीचिभाषण से जो अपने आपको भावित करता है, वह मृषाभाषण के दोष का भागी नहीं होता । (२) क्रोधप्रत्याख्यान-मोहनीय कर्म के उदय से उत्पन्न होने वाले द्वेषरूप क्रोधकषाय का त्याग करना चाहिए और अपनी आत्मा को क्रोधप्रत्याख्यान से भावित करना चाहिए । जो क्रोधत्याग की भावना करता है, वह प्रायः सत्य का उल्लंघन न करके उसका पालन करने में समर्थ होता है। (३) लोभप्रत्याख्यान--लोभ का अर्थ है तृष्णा । उसका त्याग करना लोभप्रत्याख्यान कहलाता है । जो लोभ का त्याग कर देता है उसे असत्यभाषण नही करना पड़ता। . (४) भयप्रत्याख्यान - भय असत्य भाषण का कारण है । जो व्यक्ति अपनी आत्मा को निर्भयता से भावित करता है, वह असत्य भाषण नहीं करता । भयशील मनुष्य मिथ्याभाषण भी करता है । जैसे आज रात्रि में मुझे चोर दिखाई दिया, पिशाच दिखा आदि । इस ५९
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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