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________________ RAMANAMANAANAANNAAN तत्वार्थसूत्र स एष षविधो भावो यथायोग्यं भव्यस्याभव्यस्य च जीवनस्य स्वरूपमुच्यते,तत्र मिथ्यादृष्टीनाम् अभव्यानाञ्च न कदाचित् औपशमिकक्षायिको भवतः अपितु भव्यानामेव, तौ स्तः पारिणामिकस्तूभयेषामेव भवतीति भावः, यद्यपि मिश्रग्रहणे सन्निपातिकमावस्यापि युगपदेकस्मिन् जीवे निपतनशीलस्य औपशमिकादि भावानां द्विकादि संयोगेन निष्पद्यमानम्यान्तर्भाव संभवेऽपि आगमप्रामाण्यात् पार्थक्येन ग्रहणं कृतम् औदयिकादि सान्निपातिकस्य मिश्रेऽन्तर्भावाऽसंभवश्चेति भावः । सूत्र-१४ नियुक्ति:--पूर्व जीवानां संसारिमुक्तभेदेन तदवान्तरभेदेन च सविशदं निरूपणं कृतम् सम्प्रति तेषामेव जीवानां स्वरूपलक्षणमौदयिकादि षविधभावं प्ररूपयितुमाह-"जीवस्स छब्भावा" इत्यादि जीवस्य चेतनालक्षणस्य बोधस्वरूपस्य षड्भावाः प्रज्ञप्ताः तद्यथा औदयिकः १, औपशमिकः २, क्षायिकः ३, मिश्रः ४ पारिणामिकः ५, सान्निपातिकश्च ६ इति तत्र विवक्षितार्थपरिच्छेदरूपार्थग्रहणव्यापारात्मकोपयोगलक्षणस्य जीवात्मनो ज्ञानरूपे दर्शनरूपे च द्विविधेऽपि व्यापारे चैतन्यरूपेण स्वाभाविकः परिणामः समान एव भवति ज्ञानदर्शन योर्जीवात्मनश्चैतन्यरूपेण स्वाभाविकपरिणामानुविधायित्वात् । तत्र साकारं ज्ञानं भवति परोक्षं निराकारं दर्शनमुच्यते, स च स्वाभाविकचैतन्यरूपपरिणतिमासादयन् ज्ञानदर्शनरूपोपयोगः यह छह प्रकार के भाव यथायोग्य भव्य या अभव्य जीव के स्व रूप हैं। मिथ्यादृष्टि और अभव्य जीवों को औपशमिक और क्षायिक भाव की प्राप्ति कदापि नहीं होती । ये दोनों भव्य जीवों को ही होते हैं। पारिणामिक भाव दोनों प्रकार के जीवों को होता है। सान्निपातिक भाव एक साथ एक जीव में प्राप्त होता है, और औपशमिक आदि भावों मेंसे दो तीन आदि के संयोग से उत्पन्न होता है । मिश्र भाव में उसका अन्तर्भाव हो सकता है, तथापि आगमप्रामाण्य के कारण उसका पृथक् ग्रहण किया गया है और औदयिक आदि सान्निपातिक का मिश्र में अन्तर्भाव भी नहीं है ॥१४॥ तत्त्वार्थनियुक्ति-पहले जीवों का संसारी और मुक्त के भेद बतलाफर और उनके अवान्तर मेदों का प्रतिपादन करके विवाद निरूपण किया गया है। अब उन जीवों के स्वरूप भूत औदयिक आदि छह भावों की प्ररूपणा करने के लिए कहते हैं चेतना लक्षण वाले जीव के छह भाव कहे गए हैं, यथा-(१) औदयिक (५) औपशमिक (३) क्षायिक (४) मिश्र (५) पारिणामिक और (६) सान्निपातिक । किसी पदार्थ को ग्रहण करने के व्यापार रूप लक्षण वाले जीव का ज्ञान और दर्शनदोनों प्रकार के व्यापार में चैतन्य रूप से स्वाभाविक परिणाम समान ही होता है। ज्ञान और दर्शन चैतन्य कहलाते हैं । यह जीव का स्वाभाविक परिणाम है इनमें ज्ञान साकार है और दर्शन निराकार होता है ।.... - स्वाभाविक चैतन्य रूप परिणति को प्राप्त होता हुआ ज्ञान दर्शन रूप उपयोग, कर्म के
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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