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________________ दीपिकानियुक्तिश्च अ०४ सू०९ उच्चगोत्रकर्मबन्धनिरूपणम् ४१५ चरणकरणशरणीकरणं च । ब्यस्तरूपेण समस्तरूपेणवा एतानि तीर्थकरत्वप्राप्ति हेतुभूतानि विंशतिस्थानकानि, येषामाराधनेन जीवस्तीर्थकरत्वं लभते ॥८॥ मूलसूत्रम्--"आयणिंदा-परप्पसंसाइहि उच्चागोए-" ॥९॥ छाया--"आमनिन्दा-परप्रशंसादिभिरुच्चैर्गोत्रम्-" ॥९॥ तत्त्वार्थदीपिका-पूर्वसूत्रे दर्शनविशुद्धयादीनामात्मपरिणतिभावविशेषाणां तीर्थकरनाम कर्मबन्धहेतुत्वेन प्ररूपणं कृतम् सम्प्रति-उच्चैर्गोत्रकर्मबन्धहेतोः प्ररूपणं कर्तुमाह "आयणिदापरप्पसंसाइहिं उच्चागोए-" इति । आत्मनिन्दापरप्रशंसादिभिः उच्चैर्गोत्रकर्मबन्धो भवति । तत्रात्मनः-स्वस्य निन्दनं-गर्हणमात्मनिन्दा परस्य च प्रशंसनं श्ल धनं परप्रशंसा, आदिपदेन परस्य सदगुणप्रकाशनमसद्गुणाच्छादानम्, स्वस्य च सद्गुणाच्छादनम् असद्गुणप्रकाशनं नम्रवृत्तित्वम् निरभिमानत्वञ्चेत्येतैः षड्भिर्हेतुभिरुच्चैगोत्रकर्मबन्धः ॥ ९॥ तत्त्वार्थनियुक्ति:-पूर्व तीर्थकरत्वनामकर्मबन्धहेतुत्वेन दर्शनविशुद्धयादयो विंशतिर्भावा आत्मपरिणामविशेषाः प्ररूपिताः, सम्प्रति-उच्चैर्गोत्रकर्मबन्धहेतुं प्ररूपयितुमाह - "आयणिदा परप्पसंसाइहिं उच्चागोए-" इति । आत्मनिन्दा परप्रशंसादिभिः कारणविशेषैरुच्चैर्गोत्रनामकर्म बध्यते । पड़ते हुए प्राणियों का त्राण करने वाले एवं उन्हें आश्वासन देने वाले जिनशासन की महिमा को बढाना, सारे संसार को जिनशासन का रसिक बनाना, मिथ्यात्व रूपी अंधकार का अपहरण करना तथा चरण और करण को शरण करना अर्थात् इनका निर्दोष पालन करना, यह सब प्रवचनप्रभावना के अन्तर्गत है। तीर्थकरत्व की प्राप्ति के ये वीस कारण हैं अर्थात् इन सब का अथवा इनमें से किसी एक दो या अधिक का उत्कृष्ट रूप से सेवन करने से जीव तीर्थकरनामकर्म का बन्ध करता है ॥८॥ सूत्रार्थ-'आयणिंदा परप्पसंसाइहिं' इत्यादि सूत्र-॥९॥ आत्मनिन्दा और परप्रशंसा आदि कारणों से उच्चगोत्र कर्म का बन्ध होता है ॥९॥ तत्त्वार्थदीपिका पूर्वसूत्र में दर्शनविशुद्धि आदि आत्मा की परिणतिविशेषों को तीर्थकरनामकर्म के बन्ध का कारण कहा है । अब उच्चगोत्र कर्म के बन्ध के कारणों की प्ररूपणा करने के लिए कहते हैं अपनी निन्दा और दूसरों की प्रशंसा करने से उच्चगोत्र कर्म का बन्ध होता है। अपनी निन्दा करना आत्मनिन्दा है और दूसरे की प्रशंसा करना परप्रशंसा है । आदि शब्द से दूसरों के सद्गुणों को प्रकाशित करना और दोषों को ढंकना तथा अपने सद्गुणों को ढंकना और दोषों को प्रकट करना, नम्रता धारण करना, निरभिमान होना, इन छह कारणों से उच्चगोत्र कर्म का बन्ध होता है ॥९॥ तत्त्वार्थनियुक्ति-पूर्व सूत्र में दर्शनविशुद्धि आदि वीस आत्मपरिणामों को तीर्थकरनामकर्म के बन्ध का कारण कहा, अब उच्चगोत्रकर्म के बंध के कारणों की प्ररूपणा करते हैं
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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