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________________ दीपिकानिर्युक्तिश्च अ० ४ सू ७, शुभनामकर्मबन्धहेतु निरूपणम् ४४७ 4 'काय भाव भासुज्जुयअविसंवादणजोगेहिं सुहनामकम्मं " काय - भाव व-भाषर्जुता - ऽविसंबादनयोगैः शुभनामकर्म बध्यते । च तत्र कायऋजुता तावत् कायस्यावक्रता - अकुटिलता परवञ्चनकायचेष्टा वर्जनम् । सा कुब्जत्व – वामनत्व - निकृष्टाङ्गोपाङ्गावयवचेष्टन - नयननिकोचन - नासिकाभङ्ग - स्त्री-पुरुषभृत्य - भृतकादि चेष्टारूपाऽसद्भावानामनुद्भावनरूपा १| भावऋजुता - भावशब्देनात्र मनो गृह्यते, तेन मनोयोगऋजुता—मनसोऽकुटिलता- परवञ्चनमनः प्रवृत्तिवर्जनम् २ | भाषाऋजुता - भाषाया वचस ऋजुता - सरलता - परवञ्चनवचनव्यापारवर्जनम् । यथार्थ कायचेष्टानुसारेणैव मनसो वचसश्चापि यथार्थतया व्यवहरणमिति भावः ३। अविसंवादनयोगः- तत्र - विसंवादनं परविप्रतारणं परवञ्चनम् अन्यथाप्रतिन्नपस्यान्यथाकरणमित्यर्थः, न विसंवादनम् अविसंवादनं परवञ्चनाभावरूपम्, विवक्षितार्थस्य यथावस्थित स्वभावस्य परं प्रति यथार्थतया प्रतिपादनम् अविसंवादनं बोध्यम्, तस्य तद्रूपो वा योगः, तेन वा योगः संबन्धः - अविसंवादनयोगः ४। 1 तथा चैवंविधैः कायऋजुता - भावऋजुता - भाषाऋजुता --ऽविसंवादनयोगात्मकैश्चतुर्भिर्हेतुभिः शुभनामकर्मबन्धो भवति । उक्तञ्च व्याख्याप्रज्ञप्तौ अष्टमे शतके नवमोद्देशके- "सुहनामकम्मा सरीरपुच्छा ?, गोयमा कायउज्जुययाए भावुज्जुययाए भासुज्जुarre अविसंवादणजोगेणं सुभनामकम्मा सरीर जाव प्पयोगबंधे ।" इति, कायामें वक्रता न होना कायकी ऋजुता कहलाती है १, भाव अर्थात् वचनमें कुटिलता न होना भाव की ऋजुता कहलाती है २ एवं भाषा अर्थात् वचनमें कुटिलता न होना भाषा की ऋजुता कहलाती है ३ । तथा ठगना, धूर्तता करना, धोखा देना - दूसरे के साथ छलकपट करना विसंवादन कहलाता है, ऐसा न करना, अविसंवादन कहलाता है । अर्थात् काया संबंधी कुचेष्टा का न होना काय की ऋजुन्ता है, कायाकी कुचेष्टा का अभिप्राय है कि- शरीर के किसी अंगको विकृत करना जैसे कुबडा हो जाना, वामन वनना, अंगोपांगकी खराव चेष्टा करना आँखें मट काना, मुंह बिगाडना, नाक सिकोडना, स्त्री भृत्य - नोकर चाकर की चेष्टा करना इत्यादि असभावोंको प्रदर्शित करके दूसरे के साथ छल न करना काय की ऋजुता कहलाती है, भाव अर्थात् मनमें कुटिलता न होना भावकी ऋजुता है, वचनसे किसी को धोखा न देना भाषाकी ऋजुता है । तात्पर्य यह है कि मनमें जो विचार आया हो उसको वचन द्वारा उसी रूप से प्रकट करना और उसी के अनुरूप शारीरिक प्रवृत्ति करना मन वचन काया की सरलता कहलाती है ३ । तथा जो वस्तु जैसी है उसको उसी रूप में कहना, अन्यथा स्वीकार करके अन्यथा न करना उसी रूप से उसका आचरण करना अविसंवाद योग कहलाता है ४ । इन चार प्रकार की प्रवृत्ति से शुभनाम कर्मका बन्ध होता है, उस शुभनामकर्मके विषय में भगवती सूत्र के आठवें शतक के नौवें उद्देशेमें कहा है
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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