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________________ वीपिकानियुक्तिश्च अ० ४ सू. २ पुण्यस्वरूपनिरूपणम् ४३५ पुण्यं तदुच्यते । एवम्-लयनस्य गृहस्य योग्याय पात्राय दानादपि तीर्थकरनामादि शुभकर्मप्रतिबन्धो भवति, अतस्तद् लयन-पुण्यमित्युच्यते । एवम्-शय्यासंस्तारकस्य शयनस्य योग्याय श्रमणादिपात्राय दानादपि तीर्थकरनामादिशुभकर्मप्रकृतिबन्धाद् शयनपुण्यं तदुच्यते । है एवम्-मनसा गुणिजनेषु तोषात् , वचसा तेषां प्रशंसनात् कायेन वन्दनादिना पर्युपासनात् , मुनिजनादीनां नमस्कारकरणाच्च यस्तथाविधनामादिपुण्यकर्मप्रकृतिबन्धो भवति तद्-मनःपुण्यम्, बचःपुण्यम्, कायपुण्यम्, नमस्कारपुण्यमित्युच्यते ।। उक्तञ्च ---"अन्नं पानञ्च वस्त्रञ्च, आलयः शयनासनम् । - सुश्रूषा वन्दनं तुष्टिः पुण्यं नवविधं स्मृतम्- ॥१॥ इति एवञ्चा-ऽन्नपानवस्त्रगृहशयनाऽऽसनदानादिना तीर्थकृद् मुनिजनप्रभृतियोग्यानां शुश्रूषा वैयावृत्त्याऽऽराधनवन्दनपर्युपासनादिना च शुभकर्मबन्धेन पुण्यं भवतीति निरूपितम् ॥२॥ मूलसूत्रम्--"तब्भोगो वायालीसभेएणं--"३॥ ___ छाया--"तद्भोगो द्वाचत्वारिंशद् मेदेन-" । कर्म आदि शुभ प्रकृतियों का जो बन्ध होता है, वह पानपुण्य कहलाता है। (३)सुपात्र को वस्त्र का दान करने से भी तीर्थकर नाम कर्म आदि शुभ प्रकृतियों का बन्ध होता है। अतएव उसे वस्त्र पुण्य कहते हैं। (४) योग्य पात्र को लयन अर्थात् गृह देने से भी तीर्थंकर नाम आदि शुभ कर्म प्रकृतियों का बन्ध होता है । वह लयनपुण्य कहलाता है। (५) इसी प्रकार श्रमण आदि योग्य पात्र को शय्या-संथारा दान करने से भी तीर्थकर प्रकृति आदि का बन्ध होता है । अतएव वह शयनपुण्य है। (६) इसी तरह गुणीजनों को देखकर मन से सन्तुष्ट होने-मन में प्रमोदभाव जागृत होने से, वचन द्वारा उनकी प्रशंसा करने से और काय द्वारा वन्दनआदि करके उपासना करने से और मुनिजनों को नमस्कार करने से भी शुभ नामादि कर्मप्रकृतियों का बन्ध होता है। वह अनुक्रम से मनःपुण्य, वचनपुण्य, कायपुण्य और नमस्कारपुण्य कहलाता है। कहा भी है____अन्न, पान, लयन, शयन, वस्त्र, मन, वचन, काय, शुश्रूषा, वन्दन और तुष्टि, यह नौ प्रकार का पुण्य है ॥१॥ इससे यह प्रतिपादित हुआ कि तीर्थकर, मुनिजन आदि योग्य पात्रों की शुश्रूषा, वैयावृत्य, आराधन, वन्दन और पर्युपासना आदि करने से शुभ कर्म का बन्ध होने से पुण्य होता है ॥२॥ सूत्रार्थ----"तब्भोगो बायालीसभेएणं ॥३॥ पुण्य का भोग बयालीस प्रकार से होता है ॥३॥
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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