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________________ दीपिकनियुक्तिश्च अ. १ मुक्तजीवनिरूपणम् ३७ तद्यथा-पृथिवीकायादिकाः आदिपदेन अप्कायिकाः तेजस्कायिकाः वायुकायिकाः वनस्पतिकायिका दयो गृह्यन्ते ऐताषां सूक्ष्मत्वेऽपि बादरत्वस्यापि सद्भावात् ।सूत्र १२॥ मूलसूत्रम्-'मुत्ता अणेगविहा तित्थसिद्धाइया ।सू० १३॥ छाया--"मुक्ताः अनेकविधाः तीर्थसिद्धोदयः ।सूत्र १३॥ दीपिका--पूर्वे संसारिमुक्तभेदेन जीवा द्विविधाः प्रतिपादिताः तत्र मुक्तानां स्वरूपमाह 'मुत्ता अणेगविहा तित्थ सिद्धाइया" इति मुक्ताः-कृत्स्नकर्मक्षयलक्षणमुक्तिं प्राप्ताः जीवा अनेक विधाः प्रज्ञप्ताः तद्यथा-तीर्थसिद्धाः, अतीर्थसिद्धाह्येवमनन्तरसिद्धाः पञ्चदशविधा इति सूत्र१३॥ - तत्वार्थनियुक्तिः--पूर्व संसारिमुक्तभेदेन द्विविधेषु जीवेषु संसारिणां सूत्राष्टकेन भेदोपभेदप्रतिपादनपूर्वकं प्ररूपणं कृतम् सम्प्रति क्रमप्राप्तानां मुक्तजीवानां प्ररूपणं कर्तु माह-'मुत्ता अणेगविहा तित्थसिद्धाइया” इति मुक्ताः-कृत्स्नकर्मक्षयलक्षणमुक्तिं प्राप्ताः जीवाः अनेकविधाः प्रज्ञप्ताः-अनन्तरसिद्धाः पञ्चदशविधाः तद्यथा-तीर्थसिद्धाः १ अतीर्थ तत्त्वार्थनियुक्ति-पूर्व सूत्र में सूक्ष्म जीवों के आठ प्रकार का प्रतिपादन किया गया है । अब बादर जीवों के भेद बतलाते हैं-पृथ्वीकाय आदि बादर जीव अनेक प्रकार के कहे गए हैं। यहाँ आदि शब्द से अपकायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक आदि समझ लेने चाहिए । ये जीव सूक्ष्म होते हुए बादर भी होते हैं, अर्थात् इनमें जो अत्यन्त छोटे होते हैं वे सूक्ष्म और जो अनायास ही दृष्टिगोचर हो जाते हैं वे बादर कहलाते हैं। यह पहले भी कहा जा चुका है कि यहाँ सूक्ष्म और बादर का जो भेद किया गया है, वह जीवों के शरीर की सूक्ष्मता और स्थूलता की अपेक्षा से है। सूक्ष्म नामकर्म के उदय और बादर नामकर्म के उदय वाले जो सूक्ष्म और बादर जीव शास्त्रों में कहे गए हैं, यहाँ उनका उल्लेख नहीं हैं ॥१२॥ सूत्रार्थ-'मुत्ता अणेगविहा--इत्यादि । मुक्तजीव तीर्थसिद्ध आदि के भेद से अनेक प्रकार के होते हैं ॥१३॥ तत्त्वार्थ दीपिका-संसारी और मुक्त के भेद से दो प्रकार के जीवों का कथन किया गया था, उनमें से यहाँ मुक्तजीवों का स्वरूप कहते हैं-समस्त कर्मों को क्षय रूप मोक्ष को प्राप्त मुक्त जीव अनेक प्रकार के हैं। वे इस प्रकार हैं-तीर्थसिद्ध, अतीर्थ आदि नन्दी सूत्र के २१वें सूत्र में कहे हैं। इसी प्रकार अनन्तरसिद्ध, परम्परा सिद्ध आदि भेद भी जान लेने चारिए ॥१३॥ तत्त्वार्थ नियुक्ति-संसारी और मुक्त के भेद से दो प्रकार के जीवों में संसारीजीवों की आठ सूत्रों में प्ररूपणा की है । अब क्रमप्राप्त मुक्त जीवों का प्रतिपादन करते हैं समस्त कर्मों के क्षय रूप मोक्ष को प्राप्त जीव मुक्त कहलाते हैं । वे अनेक प्रकार के हैं । इनमें अनन्तरसिद्ध जीव पन्द्रह प्रकार के हैं-(१) तीर्थसिद्ध (२) अतीर्थसिद्ध (३) तीर्थकरसिद्ध
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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