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________________ Momww ४३२ तत्वार्थसूत्रे तत्त्वार्थनियुक्तिः-याप-"नव सम्भावपयत्था पण्णत्ता, तंजहा-जीवा अजीवा पुण्णं पावो आसवो संवरनिज्जरा बंधो मोकखो-" इतिस्थानाङ्गस्य ९स्थाने कथनानुसारेण नवतत्त्वेषु पुण्यं तृतीयतत्त्वमेव वर्तते । तथाहि___“जीवाजीवा य बंधो य पुण्णं पावाऽऽसवो तहा संवरो निज्जरा मोक्खो संतेए तहिया नव-॥ इति उत्तराध्ययने बन्धतत्त्वमेव तृतीयं प्रतिपादितम् तस्मात् तदनुसारेण प्रथम-द्वितीय-तृतीयाध्यायेषु क्रमशो जीवाजीवबन्धरूपाणि त्रीणि तत्त्वानि प्ररूप्य सम्प्रति --क्रमप्राप्तं चतुर्थ पुण्यतत्वं प्रतिपादयितुमाह-'सुभकम्मं पुण्णं” इति । शुभकर्मपुण्य मत्युच्यते । तथाच-यत्कर्मोदयात् शुभोज्वलपुद्गलबन्धद्वारा यत्फलोपभोगआत्मानुकूलो भवति, तत्पुण्यतत्त्वमुच्यते इतिभावः । एवञ्चसोत्तरप्रकृतिकमष्टप्रकारकं ज्ञानावरण-दर्शनावरण-वेदनीय-मोहनीया-ऽऽयु-र्नामगोत्रान्तरायरूपं मूलप्रकृतिकं पौद्गलिकं कर्म द्विविधं प्रज्ञप्तम्, पुण्यं पापञ्च । तत्र-यच्छुभं कर्म तत्पुण्यम्, तत्र-भूतानुकम्पा-व्रत्यनुकम्पा-दान सराग-संयमादिहेतुकं सातावेदनीयम्-१ शुभायुष्कं तैरश्चं मानुषं दैवंच-२ सप्तत्रिंशत्प्रकारकं शुभनाम-३उच्चैर्गोत्रात्मकं शुभगोत्रं च-४इत्येतच्चतुर्विधं शुभकर्मपुण्यम्, तत्त्वार्थनियुक्ति-यद्यपि स्थानांग सूत्र के नौवें स्थान में जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष, इस क्रम से नौ तत्त्वों की गणना की गई है । इसके अनुसार तीसरा तत्त्व पुण्य है, किन्तु उत्तराध्ययन सूत्र के अनुसार तीसरा तत्त्व बन्ध है। उत्तराध्ययन के २८ वें अध्ययन में कहा है | _ 'जीव, अजीव, बन्ध, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा और मोक्ष, ये नौ तत्त्व हैं।' ___यहाँ उत्तराध्ययन सूत्र में प्ररूपित क्रम के अनुसार ही प्रथम अध्याय में जीव का, दूसरे में अजीव का और तीसरे में बन्ध के स्वरूप की प्ररूपणा की गई है। अब क्रम प्राप्त चौथे पुण्य तत्त्व का प्रतिपादन करने के लिए कहा गया है- 'शुभ कर्म पुण्य है।' तात्पर्य यह है कि जिस कर्म के उदय से शुभ-उज्ज्वल कर्म के बन्ध द्वारा आत्मा को अनुकूल फलोपभोग होता है, वह पुण्य तत्त्व कहलाता है । इस प्रकार ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम गोत्र और अन्तराय, इन आठ मूल प्रकृतियाँ हैं तथा इनकी उत्तर प्रकृतियाँ दो प्रकार की हैं--पुण्य रूप और पापरूप । इनमें जो कर्म शुभ है वह पुण्य है । प्राणियों को अनुकम्पा, व्रती जनों की अनुकम्पा तथा सराग संयम आदि कारणों से बँधने वाला साता वेदनोय (१), शुभआयु अर्थात् तिर्यंचआयु, मनुष्यआयु और देवआयु (२), सैंतीस प्रकार का शुभ नाम (३), और उच्च गोत्र (४), यह चार प्रकार के शुभ कर्म पुण्य हैं। इसके सिवाय सब अशुभ कर्म पाप रूप हैं । पाप तत्त्व की प्ररूपणा पाँचवें अध्याय में की जाएगी ।
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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