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________________ ४२२ तत्त्वार्थसूत्रे मूलसूत्रम् ---"सव्व कम्माणं अणंताणंता पएसगा अभव्वाणं अणंतगुणा, सिद्धाणं अणंतभागा-" ॥ २२॥ छाया--"सर्वकर्मणामनन्ताऽनन्ताः प्रदेशकाः, अभव्यानां अनन्तगुणाः-सिद्धाना मनन्तभागा:-" ॥२२॥ तत्त्वार्थदीपिका-पूर्वसूत्रे कर्मणामनुभावबन्धः प्ररूपितः, सम्प्रति-तेषां सामान्यतो निर्दिष्टं प्रदेशबन्धं विशेषतः प्रतिपादयितु माह-"सव्वकम्माणं-" इत्यादि-। सर्वकर्मणाम्ज्ञानावरणाद्यष्टविधकर्मप्रकृतियोग्यानां पुद्गलानामनन्ताऽनन्ताः प्रदेशाः सन्ति, नो संख्येयाः, नाऽप्यसंख्येयाः प्रदेशाः ते खलु-कर्मभावयोग्यपुद्गलस्कन्धाः अभव्यानामनन्तगुणाः- सिद्धानाश्चानन्ततमभागे सन्ति । तथाच-कर्मभावयोग्यानां पुद्गलानां जीवेन कियान् भागो बध्यते' इति जिज्ञासायाम्- कर्मभावयोग्यपुद्गलद्रव्याणामियत्ताऽवधारणरूपपरिमाणपरिच्छेदलक्षणः प्रदेशबन्धः पूर्व प्रतिपादितः तस्य च प्रदेशबन्धस्य विशेषतः स्वरूपज्ञानाय किं हेतुः स प्रदेशबन्धः ? कदा वा-? कुतो वा-? किं स्वभावो वा-१ कस्मिन् वा-2 किं परिमाणश्च-? इति वक्तव्यम्. । तत्र-सर्वकर्मप्रकृतिहेतुकाः सर्वेषु च भवेषु तत्रैकैकस्य जीवस्य व्यतीतेषु, अनन्तेषु भवेषु-आगमादिषु च संख्येयेषुसंवर के प्रकरण में नहीं की जाएगी। भगवतीसूत्र के प्रथम शतक में कहा है- कर्मों की उदीहरणा होती है, वेदन होता है और फिर उनकी निर्जरा हो जाती है ॥२॥ 'सव्वकम्माणं अणंताणंता पएसगा' इत्यादि ॥ सूत्र-२२ ॥ सूत्रार्थ—समस्त कर्मों के प्रदेश अनन्तानन्त-अभव्यों से अनन्त गुणा और सिद्धों के अनन्तवें भाग हैं ॥ २२ ॥ तत्त्वार्थदीपिका—पूर्व सूत्र में कर्मों के अनुभाव का प्ररूपण किया गया है, अब सामान्य रूप से निर्दिष्ट प्रदेशबन्ध का विशेष रूप से प्रतिपादन करने के लिए कहते हैं-ज्ञानावरण आदि आठों कर्मोंके अनन्तानन्तप्रदेश होते हैं-संख्यात या असंख्यात नहीं होते । __ अनन्तानन्त संख्या अनन्त प्रकार की है, अतएव उसको नियत करने के लिए कहते हैं वे अनन्तानन्त प्रदेश अभव्य जीवों की राशि से अनन्तगुणित अधिक समझने चाहिए और सिद्ध जीव राशि के अनन्तवें भाग समझने चाहिए । । जीव कर्मयोग्य पुद्गलों का कितना भाग बाँधते हैं ? इस प्रकार की जिज्ञासा का समाधान करने के लिए कर्म के योग्य पुद्गलों का परिमाण-परिच्छेद रूप प्रदेशबन्ध का पहले प्ररूपण किया जा चुका है; मगर प्रदेशबन्ध के स्वरूप का विशेष रूप से ज्ञान कराने के लिए यहाँ इन बातों पर प्रकाश डालना आवश्यक है -प्रदेशबन्ध का कारण क्या है ? वह कब होता है ? कहाँ से होता है ? उसका स्वभाव क्या है ? वह किसमें होता है ? उसका परिमाण क्या है ? समस्त कर्मप्रकृतिहेतुक, प्रत्येक जीव के भूतकालीन अनन्त भवों में तथा आगामी संख्यात, असंख्यात या अनन्त भवोंमें, काययोग वचनयोग और मनोयोग के निमित्त से इन
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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