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________________ तत्वार्थ सूत्रे एवं यस्य कर्मण उदयाद् दरिद्रोऽयम् गर्हितश्चाण्डालादिरित्येवं नीचशब्देन गूयते - शब् तत्कर्म नीचे गोत्रं विपच्यमानं निन्दितवंशशब्देन पर्यवस्यति । एवं यस्य कर्मण उदयाद देय - दान-दात्रादीनां मध्ये विघ्नो जायते - तत्कर्माऽन्तरायपदेन व्यपदिश्यते, तथाविधान्तरायकर्म विपच्यमानं सत् दानादीनां विघ्नकरणे पर्यवस्यति । एवञ्च – नरकादि जाति शरीरादिवृत्ते जीवस्य ज्ञानावरणादि सर्वकर्मणामुदये सति यथानाम विपाको भवति । तथाचोक्तं समवायाङ्गे विपाकश्रुतवर्णने ४२० 77 " अणुभागफलविवागा सव्वेसिं च कम्माणं- इति, अनुभागफलविपाकाः सर्वे - पाच कर्मणाम् इति । एवं प्रज्ञापनायां २३ - पदे ३३ - उद्देशे, उत्तराध्ययने- ३३ - अध्ययने चोक्तम् । अथोक्तरीत्या यदि तथाविधकर्मणां विपाकलक्षणोऽनुभाव इत्युच्यते, तदा किं तत्कर्मा-नुभूतं - सद् आभरणवदवतिष्ठते-? आहोस्वित्- निःसारं सत् प्रवच्यते - ३ इतिचेद् अत्रोच्यते - बद्धं कर्मा - ऽनुभूतं सत् यथायोग्यमात्मनः पीडानुग्रहौप्रदाया-भ्यवहृतौदनादिविकारवत् अवस्थाननिमित्ताsभावात् विनष्टं निर्जीर्णं भवति । एवञ्च - ज्ञानावरणादिकर्मणो विपाकलक्षणादनुभावात् क्षयलक्षणपरिशटनं भवति आत्मप्रदेशेभ्यः परिपतनलक्षणं निर्जरणं कर्मपरिणते विनाशो जायते, आकर्मपरिणामफलपरिणामभोगभोजकुल या इक्ष्वाकु कुल का है इस प्रकार के शब्दों से कहा जाता है वह उच्च गोत्र कर्म भी अपने नाम के अनुसार ही फल देता है । जिस कर्म के उदय से 'यह दरिद्र है, गर्हित है, चाण्डाल है, इत्यादि नीचशब्दों से शब्दित होता है वह नीचगोत्र कहलाता है । इसका फल नीच वंश आदि की प्राप्ति है जिस कर्म के उदय से देय, दान, दाता आदि के मध्य में अन्तराय - विघ्न उपस्थित हो जाता है, वह अन्तरायकर्म कहलाता है । अन्तरायकर्म जब अपना फल देता है तो वह दान आदि में विघ्न डालने के रूप में ही होता है । इस प्रकार ज्ञानावरण आदि समस्त कर्मों का फल उनको अपने-अपने नाम के अनुसार ही होता है । समवायांग सूत्र में विपाकश्रुत के वर्णन में कहा है- 'अनुभाग- - फल-1 - विपाक सभी कर्मों का होता है ।' 'प्रज्ञापनासूत्र के पद २३ में तथा उत्तराध्ययन के अध्ययन ३३ में भी ऐसा ही कहा है । शंका- यदि कर्मों का फल पूर्वोक्त प्रकार से होता है तो फल देने के पश्चात् वह कर्म आभूषण की तरह रहता है अथवा निस्सार होकर च्युत हो जाता है - झड़ जाता है ? समाधान- बाँधा हुआ कर्म जब भोग लिया जाता है तो आत्मा को पीड़ा या अनुग्रह प्रदान करके, खाये हुए भोजन आदि के विकार की तरह झड़ जाता है; क्योंकि उस समय उसके ठहरने का कोई कारण नहीं रह जाता ।
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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