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________________ तत्त्वार्थसूत्रे ___तथाहि-ज्ञानावरणस्य बन्धनिमित्तं तावत् प्रकृष्टदोषनिह्नवादिकम् असातावेदनीयादेर्बन्ध निमित्तं दुःखशोकादिकम्, ज्ञानावरणदर्शनावरणयोबन्धनिमित्तस्याऽभिन्नत्वेऽपि सदाशयविशेषात् परिणामभिन्नत्वमवसेयम् , ज्ञानावरणस्य विशेषग्राहित्वात्, दर्शनावरणस्य तु सामान्यग्राहित्वात् सामान्योपयोगस्यैवाऽऽच्छादकत्वं भवति । एवञ्च-बन्धनिमित्तत्वाद्-विपाकनिमित्तभेदाच्च भेदवतीषु ज्ञान वरण-दर्शनावरण-वेदनीय मोहनीया-ऽऽयुष्य-नाम-गोत्रा-ऽन्तरायरूपासु मूलप्रकृतेषु परस्परं संक्रमो न भवतीतिभावः । किन्तु-उत्तरप्रकृतिष्वेव परस्परं संक्रमो भवति, किन्तु तत्रापि कासाञ्चिदेवोत्तरप्रकृतिनां कासुचित्प्रकृतिषु सङ्क्रमो भवति, नतु-सर्वासां सर्वासु सङ्क्रमो भवति तथ हि दर्शनमोहस्तावत्-चत्वारोऽनन्तानुबन्धिनः क्रोधादयो मिथ्यात्वं-सम्यग्मिथ्यात्वं-सम्यचवञ्चेति । चारित्रमोहस्तु अप्रत्याख्यानकषाय-प्रत्याख्यानकषायादिवर्तते । तत्र-दर्शनमोहो न चारित्रमोहे सङ्क्रमं करोति, नो वा-चारित्रमोहो दर्शनमोहे सङ्क्रमं विधत्ते, एवं-सम्यक्त्वं सम्यगमिथ्यात्वेन संक्रामति-किन्तु–सम्यगमिथ्यात्वस्याऽसत्यपिबन्धे सम्यक्त्वे संक्रमो भवति । एवं-सम्य ज्ञानावरण भी दर्शनावरण आदि दूसरी मूल प्रकृतियों में संक्रान्त नहीं होता । इसी प्रकार दर्शनावरण का किसी दूसरी मूल कर्म प्रकृति के रूप में संक्रमण नहीं होता क्योंकि उनके बन्ध के कारण भिन्न जाति के होते हैं । बन्ध के कारण इस प्रकार हैं-ज्ञानावरण के बंध के कारण निह्नव आदि हैं, असातावेदनीय के बन्ध के कारण दुःख शोक आदि हैं । यद्यपि ज्ञानावरण और दर्शनावरण के बन्ध के कारण समान है, फिर भी आशय में भिन्नता होने के कारण उनके परिणाम में भिन्नता हो जाती है । ज्ञानावरण कर्म विशेष ग्राही बोध का निरोध करता है और दर्शनावरण सामान्य उपयोग (दर्शन) को आच्छादित करता है इस प्रकार भिन्न भिन्न बंध के कारण होने से तथा भिन्न भिन्न फल वाली होने से ज्ञानावरण, दर्शनावरण वेदनीय मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय प्रकृतियों का परस्पर संक्रमण नहीं होता । · संक्रमण उत्तर प्रकृतियों में ही होता है, किन्तु उनमें भी किन्हीं-किन्हीं ही उत्तरप्रकृतियों का किन्हीं-किन्हीं उत्तर प्रकृतियों में ही संक्रमण होता है; सभी का सभी में संक्रमण नहीं होता। उदाहारणार्थ-दर्शन मोहनीय कर्म का चारित्र मोहनीय के रूप में संक्रमण नहीं होता है और चारित्र मोहनीय का दर्शनमोहनीय के रूप में संक्रमण नहीं होता । इसी प्रकार सम्यक्त्व प्रकृति सम्यग्-मिथ्यात्व रूप से संक्रान्त नहो होती, किन्तु सम्यग्मिथ्यात्व अर्थात् मिश्रप्रकृति का बन्ध न होने पर भी सम्यक्त्वमें सब संक्रम होता है । इस प्रकार सम्यक्त्व प्रकृति और मिश्र प्रकृति का मिथ्यात्व में संक्रमण होता है । आयुष्क कर्म की
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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