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________________ ५१४ तत्त्वार्थसूत्रे "अगुरुलघु पराघातो-पघातनामातपोद्योतनामानि । प्रत्येकशरीर स्थिरशुभनामानीतरैः सार्धम् ॥२॥ "प्रकृतय एताः पुद्गलपाकाः भवपाकमुक्तमायुष्यम् । क्षेत्रफलमानुपूर्वी जीवविपाकाः प्रकृतयोऽन्याः ॥३॥ इति अथ कथं तावदन्यथा कर्मबन्ध स्तदन्यथाप्रकारेण विपच्यते ? इतिचेत् अत्रोच्यते-- उक्तप्रत्ययवशादुपात्तो विपाकलक्षणोऽनुभावो द्विधा प्रवर्तते स्वमुखेन-परमुखेन च, तत्र-सर्वासां ज्ञानावरणादि मूलप्रकृतीनां स्वमुखेनैवाऽनुभवो भवति, नतु-परमुखेन । नहि ज्ञानावरणं कर्म दर्शनावरणतया विपच्यते किन्तु-उत्तरप्रकृतीनां कासाञ्चित् तुल्यजातीयानां परमुखेनापि विपाको भवति, यथा- मतिज्ञानावरणस्य श्रुतज्ञानावरणतयाऽपि विपाकोऽनुभवः एवं-श्रुतज्ञानावरणस्यापि मतिज्ञानावरणतयाऽनुभवो भव ते, एवं रीत्या पञ्चानामपि ज्ञानावरणोत्तरप्रकृतीनां परस्परं परमुखतया रूपान्तरेण विपाकोऽवसेयः ।। परन्तूत्तरप्रकृतीनां मध्येऽपि आयुष्क-दर्शनचारित्रमोहानां तुल्यजातीयानामपि परस्परं संक्रमोन भवति, नहि-नरकायुष्यमुखेन तिर्यगायुष्यं मनुष्यायुष्यं वा विपच्यतेऽनुभूयते, नो वा-दर्शनमोहश्चारित्रमोहमुखेन विपच्यते, नापि-चारित्रमोहो दर्शनमोहतया विपच्यते इतिभावः । तथाचरीत अर्थात् साधारण शरीर अस्थिर और अशुभनाम कर्म, यह सब कर्म प्रकृतियाँ पुद्गलविपाकिनी हैं। आयु कर्म की चारों प्रकृतियाँ भवविपाकी हैं । आनुपूर्वी कर्म क्षेत्र विपाकी है और शेष सब प्रकृतियाँ जीवविपाकी हैं । प्रश्न-अन्य प्रकार से बाँधा हुआ कर्म अन्य प्रकार से कसे भोगा जाता है ? उत्तर-उक्त कारणों से उत्पन्न हुआ विपाक रूप अनुभाव दो प्रकार से प्रवृत्त होता हैस्वमुख से और परमुख से ज्ञानावरण आदि सभी मूल प्रकृतियों का अनुभाव स्वमुख से ही होता है, परमुख से नहीं । ज्ञानावरण कर्म, दर्शनावरण के रूप में फल नहीं देता; इसी प्रकार किसी भी मूल प्रकृति का दूसरी मूल प्रकृति के रूप में संक्रमण नहीं होता । किन्तु एक ही कर्म की उत्तर प्रकृतियाँ समानजातीय अन्य प्रकृतियों के रूप में परिणत हो जाती हैं। इस प्रकार उनका विपाक परमुख से भी होता है, जैसे मति ज्ञानावरण का श्रुतज्ञानावरण के रूप में विपाक हो जाता है और श्रुतज्ञानावरण का मतिज्ञानावरण के रूप में संक्रमण हो सकता है। इस प्रकार ज्ञानावरण कर्म की पाँचों प्रकृतियाँ परमुख से अर्थात् रूपान्तर से भी फलप्रदान करती हैं। परन्तु उत्तर प्रकृतियों के संक्रमण में मी कुछ अपवाद हैं । चार प्रकार की आयुकर्म की प्रकृतियों का परस्पर में संक्रमण नहीं होता, अर्थात् कोई भी एक आयु दूसरी आयु के रूप में नहीं बदल सकता । इसी प्रकार दर्शनमोहनीय और चारित्र मोहनीय हैं तो एक मोहनीय कर्म की ही उत्तर प्रकृतियाँ, मगर उनका भी परस्पर संक्रमण नहीं होता।
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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