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________________ तस्वार्थसूत्रे ruarAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAA आनुपूर्वीच-क्षेत्रसन्निवेशक्रमरूपा-ऽवसेया, तत्र यत्कर्मोदयात्-अतिशयेन तद्गमनाऽनुगुण्य स्यात् तदप्यानुपूर्वी कथ्यते.। साचा-ऽन्तर्गति विविधा भवति, ऋज्वी--वक्रा च, । तत्र यदा समयप्रमाणया ऋज्च्या गच्छति तदा-अग्रिमायुःकर्मानुभवन्नाऽऽनुपूर्वी नाम कर्मणैवोत्पतिस्थान प्राप्तः सन् पुरःसमुपस्थितमायुरासादयति. । वक्रगत्यातु-द्वि-त्रि-चतुःसमयप्रमाणया कूर्पर-लाङ्गल-गोमूत्रिका लक्षणया प्रवृत्तो वक्रारम्भकाले पुरस्कृतमायुरासादयति. तदैव चाऽऽनुपूर्वीनामकर्माऽप्युदेति । अथ यथा-ऋज्ज्यां गतौ-आनुपूर्वी नाम कर्मविनैवोत्पत्तिस्थानं प्राप्नोति. । एवं वक्रगत्यामपि कथं ना--ऽऽनुपूर्वी नामविनैवोत्यत्तिस्थान प्राप्नोतीति चेत् ? उच्यते, ऋज्व्यां गतौ पूर्वायुर्व्यापारेणैव गच्छति, यत्र तत्पूर्वमायुःकर्मक्षीणं भवति, तत्रैव तस्य खलु अध्वयष्टिस्थानीयस्याऽऽनुपूर्वीनामकर्मण उदयो भवति-- । तथाच--वक्रगतौ वर्तमानभवायुः कर्मणः क्षयादानुपूर्वी नामकर्म भवति । होता है और किसी सभा में पहुंच कर वचनचातुर्य से अन्य सदस्यों को त्रास उत्पन्न करता है अथवा दूसरों की प्रतिभा का प्रतिघात करता है, वह पराघात नाम कर्म कहलाता है । जीव जब वर्तमान शरीर को त्याग कर नवीन जन्म ग्रहण करने के लिए विग्रहगति करता है, उस समय इस कर्म का उदय होता है। इस आनुपूर्वी नाम कर्म के उदय से जीव अपने नियत उत्पत्ति क्षेत्र में पहुँचता है। क्षेत्र के सन्निवेश क्रम को आनुपूर्वी कहते हैं। जिस कर्म के उदय से अतिशय के साथ गमन की अनुकूलता होती है, उसे भी आनुपूर्वी कहते हैं । वह अन्तरालगति दो प्रकार की है—ऋजुगति और वक्रगति । जीव जब एक समय प्रमाण ऋजुगति से गमन करता है तब अगली आयु कर्म का अनुभव करता हुआ ही आनुपूर्वी नाम कर्म के द्वारा उत्पत्ति स्थान को प्राप्त होकर अगली आयु को प्राप्त करता है। दो, तीन या चार समय वाली वक्रगति से, जो पाणिमुक्ता, लांगलिका और गोमूत्रिका लक्षण वाली होती है, गमन करता है तो मोड़ आरम्भ होने के समय आगामी आयु को प्राप्त कर लेता है। उसी समय आनुपूर्वी नाम कर्म का ऊदय होता है। ___शंका-जैसे ऋजुगति में आनुपूर्वी नाम कर्म के उदय के बिना ही जीव अपने उत्पत्ति क्षेत्र में पहुँच जाता है, उसी प्रकार वक्रगति करके भी आनुपूर्वी नाम कर्म के बिना ही उत्पत्ति क्षेत्र में क्यों नहीं प्राप्त हो जाता ? समाधान-ऋजुगति में पूर्वभव संबंधी आयु के व्यापार से ही जीव का गमन होता है ; जहाँ पूर्वभव की आयु का क्षय हो जाता है वही आनुपूर्वी नाम कर्म का, जो अध्वयष्टि अर्थात् मार्ग में पड़ी लकड़ी के समान है, उदय होता है । इस प्रकार वक्रगति में वर्तमान भव के आयु कर्म का क्षय होने पर आनुपूर्वी नाम कर्म का उदय होता है।
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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