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________________ दीपिकानियुक्तिश्च अ. ३ सू. ९ मोहनीयकर्मण उत्तरकर्मनिरूपणम् ३७७ ख्यानकषायस्तावतक्रोधादिचतुष्टयभेदेन चतुर्विधो व्यपदिश्यते । तत्र-द्विविधं तावत् प्रत्याख्यानं भवति, देशविरतिरूपं सर्वविरतिरूपञ्च । तत्र-देशविरतिलक्षणमल्पं प्रत्याख्यानम् अप्रत्याख्यानमुच्यते तदावरणकषायो-ऽप्रत्याख्यानाऽवरणकषायो व्यपदिश्यते । यः खलु कषायः स्वल्पप्रत्याख्यानमावृणोति सर्वविरतिलक्षणमपि प्रत्याख्यानमावृणोत्येवेति न किमपि चित्रमस्ति । उक्तञ्च आवृण्वन्ति प्रत्याख्यानं स्वल्पमपि येन जीवस्य । तेनाऽप्रत्याख्यानावरणास्ते निर्विशेषोक्त्या- ॥१॥ इति, एषां कषायाणामुदये सति सम्यक्त्वलाभः सर्वदेशविरतिलक्षणं प्रत्याख्यानं न सम्भवति, । सर्वविरतिलक्षणप्रत्याख्यानस्याऽऽवरणकषायः प्रत्याख्यानकषाय उच्यते “सर्वान् प्राणिनो यावज्जीवनं न हन्मि-" इत्यादिप्रत्याख्यानं स्थगयन्तीति ये कषायास्ते प्रत्याख्यानावरणकषाया उच्यन्ते । तथाचोक्तम् ---- ___ "सर्वप्रत्याख्यानं येनावृण्वन्ति तदभिलपतोऽपि-। तेन प्रत्याख्यानाऽऽवरणास्ते निर्विशेषोत्तया- ॥१॥ इति, संज्वलनकषायाः खलु समस्तपापस्थानविरतिशालिनमपि यतिं दुःसहपरिषहसंपाते सति युगपत् संज्वलयन्तीति संज्वलनाः । तथाचोक्तम् अप्रत्याख्यात कषाय भी क्रोध आदि के भेद से चार प्रकार का है। प्रत्याख्यात दो प्रकार का होता है-देशबिरति रूप और सर्वविरतिरूप । इनमें से देश विरति प्रत्याख्यान अल्प होने के कारण अप्रत्याख्यात कहलाता है। उसको आवृत करने वाला अर्थात् उत्पन्न न होने देने वाला कषाय अप्रत्याख्यानावरण कहलाता है। जो कषाय स्वल्प प्रत्याख्यान भी नहीं होने देता वह सर्वविरतिप्रत्याख्यान को भी रोकता है, इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है। कहा भी है.---'जो कषाय जीव के स्वल्प (एकदेशीय) प्रत्याख्यान को भी रोकते हैं, वे सामान्यतया अप्रत्याख्यानावरण कषाय कहलाता हैं ॥१॥ इन अप्रत्याख्यानावरण कषायों के उदय होने पर सम्यक्त्व की प्राप्ति होने पर भी सर्वविरति या देशविरति प्रत्याख्यान नहीं होता । ___ जो कषाय सर्वविरति प्रत्याख्यान का आवरण करता है अर्थात् सर्वविरति चरित्र नहीं होने देता, वह प्रत्याख्यानावरण कषाय कहलाता है । मैं किसी भी प्राणी को जीवनपर्यन्त मन, वचन, काय और कृत, कारित अनुमोदना से घात नहीं करूँगा' इत्यादि प्रकार का प्रत्याख्यान सर्वविरति प्रत्याख्यान कहलाता है । इसको जो उत्पन्न न होने दे, वह प्रत्याख्यानावरण कषाय है । कहा है 'जिसमें कषाय के उदय से जीव चाहता हुआ भी सर्वविरति प्रत्याख्यान नहीं कर पाता, वह सामान्य रूप से प्रत्याख्यानावरण कषाय कहलाता है ॥ १ ॥ संज्वलन कषाय समस्त पापस्थानकों से विरत सर्वविरति से सम्पन्न साधु को भी दुस्सह
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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