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________________ दीपिकानिर्युक्तिश्च अ० ३ ० २ बन्धस्य चतुर्विधत्वनिरूपणम् ३५१ सत्यां फलदानक्षमत्वादनुभावबन्धो भवति, स च - सर्वदेशघात्याघात्येक -द्वि-त्रि- चतुःस्थान शुभाशु भतीव्रमन्दादिरूपः इयत्तपरिच्छेदलक्षणःप्रदेशः । तथाच - कर्तुरात्मनः स्वप्रदेशेषु कर्मपुद् गलद्रव्यपरिमाणपरिच्छेदः प्रदेशबन्ध उच्यते । एवञ्च - - विचित्रः खलु पुद्गलपरिणामः कर्तुरात्मनोऽव्यवसायानुगृहीतो भवति । यथा - मोदकोवातपित्तहरो बुद्धिवर्धनः संमोहकारी - इत्यादिरीत्या जीवसंयोगाद् नानाकारेण परिणमते, एवंकर्मवर्गणा योग्यपुद्गलस्कन्धराशिरपि कश्चिदात्मसम्बन्धात् ज्ञानस्यावरणं करोति, तदन्यः कश्चिद् दर्शनस्य स्थगनं विधत्ते, अपरः कश्चित् सुखदुःखानुभवहेतु र्भवति, कश्चित्पुनस्तत्त्वार्थाश्रद्धानं कारयति, इत्यादिबोध्यम् । तथाचोक्तम् — “ इति कर्मणः प्रकृतयो मूलाश्च तथोत्तराश्च निर्दिष्टाः । तासां यः स्थितिकाल - निबन्धः स्थितिबन्धः स उक्तः ॥ १ ॥ " तासामेव विपाकनिबन्धो यो नाम निर्वचनभिन्नः । सरसोऽनुभावसंज्ञस्तीत्रो मन्दोऽथ मध्यो वा ॥ २ ॥ "तेषां पूर्वोक्तानां स्कन्धानां सर्वतोऽपि जीवेन । सर्वैर्देशैर्योग विशेषाद् ग्रहणं प्रदेशाख्यम् ||३|| अथवा मन्द, मन्दतर और मन्दतम फल प्रदान करने की जो शक्ति उत्पन्न होती है, उसे अनुभाग बन्ध कहते हैं । कर्मों का अनुभाव कषाय की तीव्रता - मन्दता के अनुसार होता है और इसी कारण वह अनेक प्रकार का है कोई अनुभाग देशघाती तो कोई सर्वघाती होता है । कोई एक स्थानक, कोई द्विस्थानक, कोई त्रिस्थानक तो कोई चतुःस्थानक होता । आत्मा के प्रदेशों में कर्मपुद्गलद्रव्य के परिमाण का परिच्छेद प्रदेशबन्ध है । इस प्रकार आत्मा के अध्यवसायों के कारण पुगलों का परिणमन विचित्र प्रकार का होता है । जैसे मोदक वात और पित्त को हरने वाला, बुद्धिवर्धक, संमोह कारी होता है, इत्यादि रूप से जीव के संयोग से वह नाना आकारों में परिणत होता है, इसी प्रकार कर्म वर्गणा के पुद्गलों की कोई राशी आत्मा के सम्बन्ध से ज्ञान का आवरण करती है, कोई दर्शन का आवरण करती हैं, कोई, सुख-दुःख की अनुभूती का कारण होती हैं, कोई तत्त्वों के विषय में अश्रद्धा उत्पन्न करती है, इत्यादि । कहा भी है इस प्रकार कर्म की मूल और उत्तर प्रकृतियाँ कही गई हैं, उनकी स्थिति के काल का जो कारण है । वह स्थितिबन्ध कहा गया है || १ || उन प्रकृतियों के विपाक का जो कारण है, जो उनके नाम के अनुसार भिन्न-भिन्न प्रकार का है, उस रस को अनुभाव कहते हैं । उसमें कोई तीव्र कोई मन्द और कोई मध्यम होता है ॥२॥ 1
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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