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________________ तत्त्वार्थ सूत्रे एवं-दर्शनमाव्रियते येन तद्दर्शनावरणं कर्म, इत्येवं रीत्या ज्ञानावरणादिसमर्थान् - पुद्गलान् विहाय ज्ञानावरणादिसंज्ञाः सिध्यन्ति एवञ्च - एकलोलीभूतः आत्मप्रदेशकर्मपुद्गलपिण्डः आत्मप्रदेशानां ज्ञानावरणादिसमर्थपुद्गलानां च परस्परानुगमनलक्षणो बन्धो व्यपदिश्यते । कार्मणशरीरमात्मैक्यात् योगकषायपरिणतियुक्तमपि ज्ञानावरणादि कर्मयोग्यपुद्गलानामात्मसात्करणे एकत्वपरिणामापादने समर्थं भवति । अतः कार्मणशरीरेण तद्योग्यपुद्गलानां ग्रहणकृतो बन्ध उच्यते, । यथा-दीप ऊष्मगुणयोगाद् वर्त्या स्नेहमादाया-रूपेण परिणमयति, तथा आत्मदीपो रागद्वेषादिगुणयोगात् काषादियोगवर्त्या ज्ञानावरणादिकर्मयोग्यपुद्गलस्कन्धानादाय ज्ञानावरणादिकर्मतया परिणतिमासादयति । तथाच - स्नेहाभ्यक्ते शरीर उदकार्द्रीभूते वस्त्रे वा धूलिरजः प्रभृति कणा लगन्ति मलिनयन्ति च एवं–रागादिस्नेहाभ्यक्तस्याऽऽत्मनः कार्मणशरीर परिणामोऽपूर्वकर्मग्रहणे योग्यतां प्रापयति, आत्मशरीरयोरैक्यादिना भोगवीर्यतः कर्मबन्धो भवतीति भावः । तथाचोक्तम् “अपि चायं प्रायोगिकबन्धः स च भवति कर्तृसामर्थ्यात् । इष्टश्च स प्रयोगोऽनाभोगिकवीर्यस्तस्य ॥१॥ " ननु वीर्येणाऽनाभोगिन परिपाच्यरसमुदाहरति । परिणमर्यात धातुतया स च तमनाभोगवीर्येण ॥ २॥ ३४६ जो कर्म ज्ञान को आच्छादित करता है वह ज्ञानावरण कहलाता है । इसी प्रकार जो दर्शन गुण को आच्छादित करता है उसे दर्शनावरण कर्म कहते हैं । इस प्रकार ज्ञान आदि गुणों को आवृत करने में समर्थ कर्म पुद्गलों की ज्ञानावरण आदि संज्ञाएँ प्रसिद्ध हैं । इस प्रकार आत्मा के प्रदेशों के साथ कर्मपुद्गलों का एकमेक हो जाना बन्ध कहलाता है। का शरीर आत्मा के साथ एकमेक हो रहा है । योग और कषाय युक्त आत्मा ज्ञानावरण आदि कर्मों के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है । इस कारण कार्मण शरीर के द्वारा कर्मयोग्य पुद्गलों का ग्रहण करना बन्ध कहा जाता है ? जैसे दीपक अपनी उष्णता के कारण बत्ती के द्वारा, तैल ग्रहण करके ज्वाला के रूप में परिणत करता है, उसी प्रकार आत्मा रूपी दीपक राग-द्वेष आदि गुणों के योग से कषाय एवं योग रूपी बत्ती से ज्ञानावरण आदि कर्मों के योग्य पुद्गल स्कंधों को ग्रहण करके ज्ञानावरण आदि कर्मों के रूप में परिणत करता हैं । जैसे तैल से लिप्त शरीर में और जल से गीले हुए वस्त्र में धूल और रेत के कण चिपक जाते हैं और शरीर या वस्त्र को मलीन बना देते हैं, उसी प्रकार रागादि की चिकनाई से चिकना बना हुआ आत्मा नवीन कर्मों को ग्रहण करने के योग्य होता है । आशय यह है आत्मा और शरीर के एकमेक होने से आभोग वीर्य के द्वारा कर्मका बन्ध होता है । कहा भी हैयह प्रायोगिक बन्ध कर्त्ता के सामर्थ्य से उत्पन्न होता है और उसके अनाभोगिक वीर्य से माना गया है ॥ १ ॥
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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